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महर्षि दयानंद सरस्वती

                                   महर्षि दयानंद सरस्वती भारत के प्रमुख विद्वान,सन्यासी ,समाज सुधारक और आर्य समाज के संस्थापक हैं ! सर्वप्रथम उन्होंने ही स्वराज का नारा दिया था जिसे बाद में श्री लोकमान्य तिलक ने अपनाया ! उन्होंने तत्कालीन समाज में प्रत्येक धर्म में व्याप्त  अंधविश्वासों का विरोध  किया और सनातन वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना की ! इसी क्रम में उन्होंने "वेदों की और लौटो " का साश्वत नारा दिया ! पूर्व राष्ट्रपति श्री राधाकृष्णन के अनुसार वह आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक थे !

                                                         ऐसे महान व्यक्तित्व से अनेक महापुरुषों ने प्रेरणा प्राप्त की जिनमें विनायक दामोदर सावरकर ,दुष्ट कर्जन वायली को मारने वाले वीर मदन लाल धींगरा, शहीदे आजम भगत सिंह ,लाला  हरदयाल , स्वामी श्रधानंद , मेडम भीकाजी कामा  ,आदि प्रमुख हैं ! उन्हीं के प्रमुख शिष्य श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा ने लन्दन में "इण्डिया हाउस " की स्थापना की थी जो की वहां के युवा क्रांतिकारियों की प्रमुख शरण स्थली थी ! उनकी राशन "सत्यार्थ प्रकाश " ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पथ प्रदर्शन किया !
                          श्री दयानंद जी कर्म , सिद्धांत में संशयवाद तथा ब्रह्मचारी में विश्वास करने वाले सन्यासी थे ! वह सदेव स्त्रियों को पुरुषों के बराबर स्थान देते थे ! उन्होंने सदेव स्त्री शिक्षा और स्त्रियों द्वारा धार्मिक ग्रंथों के पाठ को प्रोत्साहन दिया ! उन्होंने वेदों का संस्कृत भाषा से हिंदी में अनुवाद किया ताकि साधारण  जन -मानस  भी  वेदों को पढ़ और समझ  सके  !

प्रारंभिक जीवन
                  स्वामीजी का जन्म श्री करशंजी लालजी व देवी माँ यशोदाबाई की संतान के रूप में  27-फ़रवरी-1824 को काठियावाड़ (गुजरात) के गाँव टंकारा में हुआ था ! उनका परिवार समृद्ध व धर्मनिष्ठ ब्रह्मण परिवार था ! मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण उनका नाम "मूलशंकर" रखा गया ! बचपन में ही उन्होंने संस्कृत , वेद व अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन प्रारंभ कर दिया था !
                   बचपन में ही घटित कुछ घटनाओं ने उनके मन में परम्परागत हिन्दू धर्म व इश्वर के विषय में प्रश्न उत्पन्न कर दिए थे जिनके उत्तरों की खोज में अंतत: वह सन्यासी बन गए  ! 
                एक बार शिवरात्रि के अवसर पर वह परिवार सहित शिवपूजन हेतु मंदिर गए ! रात्रि में उनका परिवार सो गया  किन्तु बालक मूलशंकर जग रहे थे ! उन्होंने देखा की एक चूहा शिव जी की प्रतिमा के पास घूम रहा है और उनके भोग को खा रहा है !यह देखकर उन्हें अत्यधिक आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा की जो इश्वर अपने भोग की रक्षा नहीं कर सकता वह इश्वर सम्पूर्ण मानव जाति की रक्षा कैसे कर सकता है ? और तभी उन्होंने अपने पिता से कहा की वह ऐसे असहाय  इश्वर की आराधना नहीं कर सकते ! यहीं से उनके ह्रदय में मूर्तिपूजा के विरुद्ध संशय पैदा हो गया !

              इसी प्रकार हैजे के कारण अल्पायु में ही अपनी छोटी बहन और चाचाजी की म्रत्यु ने उनके ह्रदय को झकझोर कर रख दिया और उनके मन में जीवन-म्रत्यु को लेकर अनेकों प्रश्न खड़े होने लगे ! उन्होंने यह प्रश्न अपने परिजनों से पूछने आरम्भ कर दिया इससे उनके परिजनों का चिंतित होना स्वाभाविक था ! उनके परिवार ने उनका विवाह करना चान्हा किन्तु उन्होंने तो निश्चय कर लिया था की विवाह उनके लिए नहीं है और इसीलिए 1846 को गृह त्याग कर वह घुमंतू सन्यासी बन गए !
   उन्होंने पाणिनि के व्याकरण तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया और उन्हें विश्वास हुआ की इश्वर की खोज की जा सकती है ! लगभग दो दशकों तक इश्वर की खोज में भटकने के पश्चात् उनकी भेंट मथुरा में स्वामी विरजानंद से हुई और उन्हें स्वामीजी ने अपना गुरु बना लिया !   स्वामी विरजानंद ने उन्हें उनकी सभी पुस्तकों को फेंक देने के लिए कहा ताकि वह अभी तक सीखे हुए अपने सभी ज्ञान को  भुला दें और एक नयी स्लेट की तरह दोबारा वेदों के अध्ययन से अपनी शिक्षा प्रारंभ करें क्योंकि वेद ही सर्वाधिक प्राचीन और मूल ग्रन्थ हैं ! मूलशंकर जी ने स्वामी विरजानंद के सान्निध्य  में ढाई वर्षों तक अध्ययन किया ! शिक्षा पूर्ण होने पर मूलशंकर जी ने विरजानंद जी से उनकी गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया इस पर महान संत श्री विरजानंद जी ने उनसे कहा की वह यदि गुरु दक्षिणा देना चाहते हैं तो इसके लिए वह पूरे समाज में वेदों का प्रसार करें और समाज का कल्याण करें ! स्वामी दयानंद जी ने अपने गुरु की इस इच्छा को शिरोधार्य किया इसी ध्येय की पूर्ती में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया ! यहीं से उनका नाम स्वामी दयानंद सरस्वती रखा गया !
  स्वामी दयानंद सरस्वती जी का मिशन
स्वामीजी ने अपने प्राणों की परवाह किये बिना तत्कालीन हिन्दू समाज में सुधार का बीड़ा उठा लिया ! इसके लिए उन्होंने पूरे देश में यात्राएं कीं और प्रजा की आँखों से अंधविश्वासों का पर्दा हटाने के लिए अनेक धार्मिक विद्वानों व  पंडितों को शास्त्रथ हेतु चुनोती दी और अपनी तर्क बुधि व ज्ञान के आधार पर सदेव विजयी रहे ! उनका मानना था की हिन्दू धर्म के भ्रष्ट होने का प्रमुख कारण है की पुजारी वर्ग स्व-महत्व के उद्देश्य से वेदों के मूल सिधांत से भटक गया है ! इस वर्ग ने सामान्य जन को वेदों के अध्ययन की जगह कर्मकांडों में लगा दिया है जैसे गंगा स्नान करना या वर्षगांठ पर पंडितों को भोज देना ! इसे स्वामीजी अन्धविश्वास या स्व-सेवा कहते थे !
                                          अनेक लोगों ने यह गलत धारणा बना रखी है की स्वामीजी कट्टर हिंदूवादी थे व अन्य धर्मों से विद्वेष रखते थे जो की पूर्णत: गलत है ! वास्तव में वह सभी धर्मों में व्याप्त कुरीतियों व अंधविश्वासों के खिलाफ थे यदि ऐसा न होता तो वह हिन्दू धर्म में व्याप्त मूर्ती-पूजा , कर्मकाण्डों , अवतारवाद, तीर्थयात्राएं , पशु-बलि, बहुदेववाद , जातिवाद, बल विवाह, छूआछूत ,आदि का विरोध कभी नहीं करते ! उनके अनुसार मानव सेवा ही सच्चा धर्म है और वैदिक धर्म ही सनातन और सच्चा धर्म है !

वैदिक स्कूलों की स्थापना
 समाज में वैदिक धर्म, संस्कृति और मूल्यों की पुन: स्थापना के लिए उन्होंने वैदिक स्कूलों की स्थापना की !ऐसा पहला स्कूल 1869 में फर्रुखाबाद में खोला गया और इसकी सफलता से प्रेरित होकर 1870 में तीन स्थानों - मिर्जापुर , कासगंज  व छलेसर में खोले गए ! 1873 में एक स्कूल वाराणसी में भी खुला ! इसी भावना से उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की !
         इन स्कूलों में छात्र मूर्तिपूजा की जगह संध्या (वेदों के मन्त्रों द्वारा ध्यान व प्रार्थना करना ) करते , दिन में दो बार अग्निहोत्र यग्य करते और केवल वही ग्रन्थ पढाये जाते जो वेदों को स्वीकार करते थे ! यहाँ ब्राम्हणों के अलावा अन्य जाति के छात्रों को भी संस्कृत की शिक्षा दी जाति थी और सभी छत्रों के खाने, पीने, रहने, कपड़ों और किताबों की स्कूल द्वारा ही की जाति थी !
      इतना सब होने के बाद भी यह स्कूल अधिक नहीं चल सके क्योंकि एक ओर धन का अभाव तो था ही वहीँ  योग्य शिक्षक मिलने भी मुश्किल थे और उचित पुस्तकों का भी अभाव था !

     अपनी यात्राओं के दोरान स्वामीजी ब्रह्म समाज के अनुयायियों के संपर्क में भी आये ! स्वामीजी और ब्रह्म समाज की विचारधारा में काफी समानता भी थी किन्तु प्रमुख अंतर यही था की स्वामीजी सिर्फ वेदों को ही इश्वर की वाणी मानते थे और उनके ऊपर कुछ नहीं मानते थे !

सत्यार्थ प्रकाश
                                             अपने कलकत्ता  प्रवास के बाद स्वामीजी ने समाज सुधार  के अपने तरीके में अनेक परिवर्तन किये जिनमें सबसे प्रमुख था हिंदी में व्याख्यान देना ! इससे पहले वह सदा संस्कृत में  ही संवाद और शास्त्रार्थ करते थे ! इससे  उन्हें विद्वानों व आम लोगों में अत्यधिक  सम्मान  प्राप्त हो चुका था किन्तु अधिसंख्य जनता को अपनी बात समझाना मुश्किल था क्योंकि वह संस्कृत नहीं जानती थी ! इसीलिए स्वामीजी ने आम जनता  की भाषा हिंदी को चुना और अब समाज के निचले तबके को भी वह अपनी बात समझा सके !

                     वाराणसी में स्वामीजी द्वारा हिंदी में दिए गए ऐसे ही कुछ व्याख्यानों को सुनकर वहीँ के एक सरकारी अधिकारी श्री  राज जयकिशन दास ने उन्हें सुझाव दिया  की और भी अधिक लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए क्यों न स्वामीजी  अपने विचारों को एक पुस्तक में प्रकाशित करें जिसे जनता में बनता जा सके ! स्वामीजी को यह सुझाव पसंद आया ! 1874 में जून से सितम्बर के बीच उन्होंने इश्वर, वेद, धर्म, आत्मा, विज्ञान,  दर्शन, शिक्षा , सरकार व भारत और विश्व के संभावित भविष्य पर अपने व्यापक विचार दिए जिन्हें उनके लेखक पंडित भीमसेन शर्मा जी ने लेखनबढ किया ! यही लेखन 1875 में सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ !     

आर्य समाज की स्थापना
    मुंबई में अनेक अनुयायीयों के आग्रह पर स्वामीजी ने अंतत:  10-अप्रैल-1875  को आर्य समाज  नामक सुधार आन्दोलन की स्थापना की ! यद्यपि स्वामीजी ऐसा नहीं चाहते थे किन्तु जब मुंबई में  एक    धार्मिक सभा में वह व्याख्यान दे रहे थे तभी एक श्रोता ने उनसे पूंछा की "क्या हमें एक नया समाज बनाना चाहिए ?" इस पर स्वामीजी ने कहा "यदि तुम समाज  कीस्थापना द्वारा समाज का कुछ भला कर सकते हो तो समाज बनाओ ...  " 
     अंतत:  100 अनुयायियों के साथ 10 -अप्रैल-1875  को आर्य समाज  की स्थापना हुई ! सदस्यों ने स्वामीजी से इसका अध्यक्ष अथवा गुरु बनने का आग्रह किया लेकिन उन्होंने कृपापूर्वक मना कर दिया और मात्र उसके साधारण सदस्य  ही बने !

आर्य समाज  के दस सिद्धांत 
   24-जून-1877 को दुसरे प्रमुख आर्य समाज  की स्थापना लाहोर में हुई और यहीं  आर्य समाज के प्रमुख दस सिद्धांत सूचीबद्ध किये गए :
  1.  सभी सत्य ज्ञान और इस ज्ञान द्वारा जो भी जाना गया है उसका प्रथम आधार परमेश्वर है !
  2. इश्वर अस्तित्ववान और  आनन्दमय है ! वह निराकार ,सर्वज्ञ, अजन्मा, असीम, अपरिवर्तनीय,  सबका आधार, सबका स्वामी,  सर्वव्यापी,  अंतर्यामी,  निर्भय, अनश्वर,  अनन्त, पवित्र और सबको बनाने वाला है ! केवल वही उपासना के योग्य है !
  3. वेद सत्य ज्ञान के  पवित्र लेख हैं ! यह आर्यों का प्रथम कर्तव्य है की वह वेदों को पढ़ें, पढाएं, चर्चा करें और सुनें !
  4. हर इंसान को हमेशा सत्य को स्वीकार करने और असत्य को छोड़ देने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए !
  5. हर इंसान को हमेशा धर्म  के अनुसार कर्म करने चाहिए अर्थात सत्य-असत्य पर गहन चिन्तन के बाद !
  6. सम्पूर्ण विश्व का भौतिक, आध्यात्मिक व सामाजिक कल्याण करना ही इस समाज का मूल उद्देश्य है !
  7. सदा धर्म के अनुसार  प्रेम और न्याय से व्यवहार करें !
  8. प्रत्येक को सत्य को प्रोत्साहित व असत्य का नाश करना चाहिए ! 
  9. प्रत्येक को केवल अपने कल्याण के बारे में नहीं सोचना चाहिए बल्कि दूसरों के कल्याण में ही अपना कल्याण समझना चाहिए !
  10. प्रत्येक व्यक्ति को खुद को समाज के लोकोपकारवादी शासन के अधीन समझना चाहिए यद्यपि व्यक्तिगत कल्याण हेतु सभी स्वतंत्र हैं !
                  यद्यपि सिख समाज से आर्य समाज के कुछ मतभेद भी हुए लेकिन फिर भी भगत सिंह (सिख) जी जैसे महँ क्रन्तिकारी आर्य समाज से प्रभावित रहे और उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल जी जैसे प्रमुख आर्य समाजी और क्रन्तिकारी के साथ स्वतंत्रता हेतु संघर्ष भी किया !

संत का देहावसान 
                       स्वामीजी की सहज म्रत्यु नहीं हुई थी अपितु एक नर्तकी ने प्रतिशोध लेने के लिए unki हत्या करायी थी !
                   1883 में जोधपुर के महाराजा के निमंत्रण पर स्वामीजी उनके महल गए क्योंकि महाराजा उनके शिष्य बनने को उत्सुक थे ! एक दिन जब स्वामीजी महाराजा के कक्ष में गए तो वहां उन्होंने एक नर्तकी को पाया ! इस पर स्वामीजी ने उन्हें उस नर्तकी और सभी अनैतिक कामों को छोड़ देने और सच्चे आर्य की तरह धर्म का पालन करने के लिए कहा ! नर्तकी को यह बहुत बुरा लगा और उसने बदला लेने के लिए उनके रसोइये को धन देकर उनके दूध में विष मिलवा दिया ! विष मिला  दूध पीकर स्वामीजी सोने चले गए  किन्तु तीव्र जलन होने के कारन जल्द ही जाग गए ! वह तुरंत समझ गए की उन्हें विष दिया गया है किन्तु तब तक विष उनके पूरे रक्त में घुल चुका था ! स्वामीजी म्रत्युशैय्या पर पड़ गए और अति दुखदाई कष्ट से तड़पने लगे ! अनेक डॉक्टर उन्हें ठीक करने आये  किन्तु उनकी  दशा बिगडती गयी ! उनके पूरे शरीर पर बड़े-बड़े घाव हो गए जिनसे खून बहने लगा ! स्वामीजी की ऐसी दशा देखकर उस रसोइये को भी बहुत पश्चाताप हुआ और उसने स्वामीजी के पास जाकर रोते हुए अपने पाप की क्षमा मांगी ! और स्वामीजी ने आशा के अनुरूप उसे न सिर्फ क्षमा ही किया बल्कि धन देकर उसे तुरंत राज्य से बहार भेज दिया क्योंकि सच पता चल जाने पर महाराजा उसे कठोर दंड देते !
         अंतत: 31-अक्टूबर-1883 को इस परम दिव्य आत्मा ने 59 वर्ष की आयु में देहत्याग किया !

रचनायें
  •   स्वामीजी ने लगभग 60 ग्रंथों की रचना की जिनमें 6 वेदांगों की व्याख्या , अष्टाध्यायी पर अधूरी टीका, संस्कारविधि, भ्रत्निवरण , रत्नमाला, वेदभाश्य, आदि प्रमुख हैं !
  • अपने साहित्य और वैदिक ग्रंथों के प्रकाशन के लिए उन्होंने अजमेर में "परोपकारिणी सभा " की स्थापना की !
  • सत्यार्थ प्रकाश (1875)
  • रिग्वेदादी भाष्य भूमिका !
  • Glorious Thoughts of Swami Dayananda
  • An introduction to the commentary on the Vedas
  • आत्मकथा
  • The philosophy of religion in India

  






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