23.3.11

आज ही वह पावन दिन है जब 23 -मार्च-1931 की ऐतिहासिक तारिख को शहीद भगत सिंह जी , राजगुरु जी और सुखदेव जी फांसी के फंदे को चूमकर सदा के लिए अमर हो गए !  ईश्वर उनकी कीर्ति को अमर रखे !

20.3.11

चटगाँव आर्मरी रेड के नायक मास्टर सूर्य सेन

                    भारत की भूमि पर अनेकों शहीदों ने क्रांति की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति देकर आजादी की राहों को रोशन किया है ! क्रांति और बलिदान के ऐसे ही एक देदीप्यमान सूर्य थे  चटगाँव आर्मरी रेड के नायक मास्टर सूर्य सेन जिन्होंने अंग्रेज सरकार को सीधे चुनोती दी ! अंग्रेज सरकार उनके साहस से इस प्रकार हिल गयी की जब उसने उन्हें पाया तो उन्हें ऐसी ह्रदय विदारक व अमानवीय यातनाएं दीं गयीं की उन्हें सुनकर ही इंसान के रोंगटे खड़े हो जाते हैं ! 


 प्रारंभिक जीवन
      सूर्य सेन जी का जन्म 22-मार्च-1894  को हुआ था ! उनके पिता श्री रामनिरंजन जी चटगाँव में नोअपारा में शिक्षक थे ! सूर्य सेन जी की शिक्षा-दीक्षा चटगाँव में ही हुई ! जब वह इंटरमीडिएट  में थे तभी अपने एक राष्ट्रप्रेमी शिक्षक की प्रेरणा से वह बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था "अनुशीलन समिति " के सदस्य बन गए ! इस समय उनकी आयु 22 वर्ष थी ! आगे की शिक्षा के लिए वह बहरामपुर गए और उन्होंने बहरामपुर कॉलेज में बी.ऐ. में दाखिला ले लिया ! यहीं उन्हें प्रसिद्ध क्रांतिकारी संगठन "युगांतर" के बारे में पता चला और वह उससे अत्यधिक प्रभावित हुए ! युवा सूर्य सेन के हृदय में स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना दिन-प्रति-दिन बलवती होती जा रही थी ! इसीलिए 1918 में  चटगाँव वापस आकर उन्होंने स्थानीय स्तर पर युवाओं को संगठित करने के लिए "युगांतर पार्टी " की स्थापना की !

           अधिकांश लोग समझते हैं की तत्कालीन युवा सिर्फ हिंसात्मक संघर्ष ही करना चाहते थे , जो की पूर्णत: गलत है ! स्वयं सूर्य सेन जी ने भी जहाँ एक और युवाओं को संगठित किया था वहीँ वह भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस  जैसे अहिंसक दल के साथ भी जुड़े थे और वह भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस  की चटगाँव  जिला कमेटी के अध्यक्ष भी चुने गए !

           अपने देशप्रेमी संगठन के कार्य के साथ ही साथ वह नंदनकानन के सरकारी स्कूल में शिक्षक  भी बन गए और यहीं से वह "मास्टर दा" के नाम से लोकप्रिय हो गए ! नंदनकानन के  बाद में वह चन्दनपुरा के उमात्रा स्कूल के भी शिक्षक रहे !
         1923 तक मास्टर दा ने चटगांव के कोने-कोने में क्रांति की अलख जगा दी थी ! साम्राज्यवादी सरकार क्रूरतापूर्वक क्रांतिकारियों के दमन में लगी थी ! साधनहीन युवक एक और अपनी जान हथेली पर रखकर निरंकुश साम्राज्य से भीड़ रहे थे तो वहीँ दूसरी और उन्हें धन और हथियारों की कमी भी सदा बनी रहती थी !

             इसी कारण मास्टर सूर्य सेन जी (मास्टर दा) ने सीमित संसाधनों को देखते हुए सरकार से गुरिल्ला युद्ध करने का निश्चय किया और अनेक क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम दिया ! उन्हें पहली सफलता तब मिली जब उन्होंने दिन-दहाड़े 23-दिसंबर-1923  को चटगाँव में आसाम-बंगाल रेलवे के ट्रेजरी ऑफिस को लूटा किन्तु उन्हें अविस्मरनीय सफलता चटगाँव आर्मरी रेड के रूप में मिली जिसने अंग्रेज सरकार को झकझोर कर रख दिया ! यह सरकार को खुला सन्देश था की भारतीय युवा मन अब अपने प्राण देकर भी दासता की बेड़ियों को तोड़ देना चाहता है !
        
चटगाँव आर्मरी (शस्त्रागार) रेड
           मास्टर दा ने युवाओं को संगठित कर "भारतीय प्रजातान्त्रिक सेना" (Indian Republican Army, Chittagong Branch) नामक सेना बनायी ! उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों के दल ने , जिसमें गणेश घोष , लोकनाथ बल , निर्मल सेन , अम्बिका चक्रवर्ती , नरेश राय , शशांक दत्त , अरधेंधू दस्तीदार , तारकेश्वर दस्तीदार , हरिगोपाल बल , अनंत सिंह , जीवन घोषाल , आनंद गुप्ता जैसे वीर युवक और प्रीतिलता  वादेदार व कल्पना दत्त जैसी वीर युवतियां भी थीं ! यहाँ तक की एक 14 वर्षीय किशोर सुबोध राय भी अपनी जान पर खेलने गया था !
        योजना के अनुसार 18-अप्रैल-1930 को सैनिक वस्त्रों में इन युवाओं ने दो दल बनाये , एक गणेश घोष जी और दूसरा लोकनाथ बल जी के नेतृत्व में ! गणेश घोष जी के दल ने चटगाँव के पुलिस शस्त्रागार (police armoury ) पर और लोकनाथ जी के दल ने चटगाँव के सहायक सैनिक शस्त्रागार ( Auxiliary Forces armoury) पर कब्ज़ा कर लिया किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें बंदूकें तो मिलीं पर उनकी गोलियां नहीं मिल सकीं ! क्रांतिकारियों ने टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट दिए और रेलमार्गों को अवरुद्ध कर दिया ! एक प्रकार से चटगाँव पर क्रांतिकारियों का ही अधिकार हो गया ! तत्पश्चात यह दल पुलिस शस्त्रागार के सामने इकठ्ठा हुआ जहाँ मास्टर दा ने अपनी इस सेना से विधिवत सैन्य सलामी ली , राष्ट्रिय ध्वज फहराया और भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की !
        दल को अंदेशा था की इतनी बड़ी साहसिक घटना पर सरकार तिलमिला उठेगी इसीलिए वह गोरिल्ला युद्ध हेतु तैयार थे और इसी उद्देश्य के लिए यह लोग शाम होते ही चटगांव नगर के पास की पहाड़ियों में चले गए ! किन्तु स्थति दिन पर दिन कठिनतम होती जा रही थी ! बाहर अंग्रेज पुलिस उन्हें हर जगह भूखे कुत्तों की तरह ढूंढ रही थी वहीँ जंगली पहाड़ियों पर  उन्हें भूख-प्यास व्याकुल किये थी !
       अंतत: 22-अप्रैल-1930 को हजारों अंग्रेज सैनिकों ने जलालाबाद पहाड़ियों को घेर लिया जहाँ क्रांतिकारियों ने शरण ले रखी थी ! ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी समर्पण के बजे उन्होंने हथियारों से लेस अंग्रेज सेना से गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया ! उनकी वीरता और गोरिल्ला युद्ध-कोशल का अंदाजा इसी से लग जाता है की इस जंग में जहाँ 80 से भी ज्यादा अंग्रेज सैनिक मरे गए वहीँ मात्र  12  क्रांतिकार ही शहीद हुए ! इसके बाद मास्टर दा किसी प्रकार अपने कुछ साथियों सहित पास के गाँव में चले गए , उनके कुछ साथी कलकत्ता चले गए लेकिन दुर्भाग्य से कुछ पकडे भी गए !
              पुलिस किसी भी सूरत में मास्टर दा को पकड़ना चाहती थी और हर तरफ उनकी तलाश कर रही थी ! सरकार ने मास्टर दा पर 10,000 रु. का इनाम घोषित कर दिया परन्तु जिस व्यक्ति को सभी चाहते हों तो उसका सुराग कौन देता ? जब मास्टर दा पाटिया के पास एक विधवा स्त्री सावित्री देवी के यहाँ शरण लिए थे तभी 13-जून-1932 को कैप्टेन कैमरून ने पुलिस व सेना के  साथ उस घर को घेर लिया ! दोनों और से गोलीबारी हुई जिसमें कैप्टेन कैमरून मारा गया और मास्टर दा अपने साथियों के साथ इस बार भी सुरक्षित निकल गए !
          इतना दमन और कठिनाइयाँ  भी इन युवाओं को डिगा नहीं सकीं और जो क्रांतिकारी बच गए उन्होंने दोबारा खुद को संगठित कर लिया और दोबारा अपनी साहसिक घटनाओं द्वारा सरकार को छकाते रहे ! ऐसी अनेक घटनाओं में 1930 से 1932 के बीच 22 अंग्रेज अधिकारी और उनके लगभग 220 सहायकों की हत्याएं की गयीं !


 
नेत्र सेन का धोखा और मास्टर दा को फांसी
      इस दोरान मास्टर दा ने अनेक संकट झेले , उनके अनेक प्रिय साथी पकडे गए , अनेकों ने यातनाएं सहने के बजाय आत्महत्या कर ली ! स्वयं मास्टर दा सदेव एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते और अपनी पहचान छुपाने के लिए नए-नए वेश बनाया करते जैसे कभी किसान , कभी दूधिया , कभी पुजारी ,  कभी मजदूर तो कभी मुस्लिम बन जाते , न खाने का ठिकाना था न सोने का पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी !

          किन्तु दुर्भाग्यवश उन्ही का एक धोखेबाज साथी नेत्र सेन लालच अथवा इर्ष्यावश अंग्रेजों से मिल गया और जब मास्टर दा उसके घर में शरण लिए थे तभी उसकी मुखबिरी पर 16-फ़रवरी-1933 को मास्टर दा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया ! इस प्रकार भारत का महान नायक पकड़ा गया ! नेत्र सेन की पत्नी अपने पति के इस दुष्कर्म पर इतनी अधिक दुखी और लज्जित हुई की जब उसके घर में उसीके सामने ही एक देशप्रेमी ने उसके पति की हत्या कर दी और उसने कोई विरोध नहीं किया यहाँ तक की जब पुलिस जांच करने आई तो उसने निडरता से कहा ' तुम चाहों तो मेरी हत्या भी कर सकते हो किन्तु तब भी मैं अपने पति के हत्यारे का नाम नहीं बता सकती क्योंकि मेरे पति ने सूर्य सेन जैसे भारत माता के सच्चे सपूत को धोखा दिया था जिसे सभी प्रेम करते हैं और सम्मान देते हैं ! ऐसा करके मेरे पति ने भारत माता का शीश शर्म से झुका दिया है ! ' - कितने विचार की बात है की काश यदि उस समय अंग्रेजों के सभी समर्थकों , भारतीय अधिकारीयों व सैनिकों की स्त्रियाँ भी ऐसा ही सोचतीं तो शायद हमें स्वाधीनता बहुत पहले ही मिल जाती और इतने युवा पुष्पों को खिलती उम्र में इस तरह मुरझाना नहीं पड़ता !

        मास्टर दा के अभिन्न साथी तारकेश्वर दस्तीदार जी ने अब " युगांतर पार्टी " की चटगाँव शाखा का नेतृत्व संभाल लिया और मास्टर दा को अंग्रेजों से छुड़ाने की योजना बनाई लेकिन योजना पर अमल होने से पहले ही यह भेद खुल गया और तारकेश्वर कल्पना दत्ता व  अपने अन्य साथियों के साथ पकड़ लिए गए !

        सरकार ने सूर्य सेन जी , तारकेश्वर जी और कल्पना जी पर मुकद्दमा चलाने के लिए विशेष न्यायालयों (tribunals) की स्थापना की और 12-जनवरी-1934 को सूर्य सेन जी को तारकेश्वर जी के साथ फंसी दे दी गयी ! लेकिन फांसी से पूर्व उन्हें ऐसी अमानवीय यातनाएं दी गयीं  की रूह काँप जाती है ! निर्दयतापूर्वक हथोड़े से उनके दांत तोड़ दिए गए , नाखून खींच लिए गए , हाथ-पैर , जोड़ तोड़ दिए गए और जब वह बेहोश हो गए तो उन्हें अचेतावस्था में ही खींच कर फांसी के तख्ते तक लाया गया ! क्रूरता और अपमान की पराकाष्टा यह थी की उनकी मृत देह को भी उनके परिजनों को नहीं सोंपा गया और उसे धातु के बक्से में बंद करके बंगाल की कड़ी में फेंक दिया गया !

   11 जनवरी को उन्होंने अपने मित्र को अपना अंतिम पत्र लिखा " म्रत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है ! मेरा मन अनंत की और बह रहा है , मेरे लिए यह वो पल है जब मैं म्रत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूं ! इस सौभाग्यशील ,  पवित्र और निर्णायक पल में मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूँ ? सिर्फ एक चीज - मेरा स्वप्न , मेरा सुनहरा स्वप्न , स्वतंत्र भारत का स्वप्न ! प्रिय मित्रों , आगे बढ़ो और कभी अपने कदम पीछे मत खींचना ! उठो और कभी निराश मत होना ! सफलता अवश्य मिलेगी ! " अंतिम समय में भी उनकी आँखें स्वर्णिम भविष्य का स्वप्न देख रही थीं !
 
 स्मारक
  •  चटगांव सेन्ट्रल जेल के जिस फंसी के तख्ते पर मास्टर दा और तारकेश्वर जी को फांसी दी गयी उसे बंगलादेश सरकार ने सूर्य सेन जी का स्मारक घोषित किया है !
  • भारत में कलकत्ता मेट्रो के एक स्टेशन  का नाम उनके नाम पर "  मास्टर दा सूर्य सेन " रखा गया है !
  • सिलीगुड़ी में उनके नाम पर एक पार्क है " सूर्य सेन पार्क " जहाँ उनकी मूर्ती भी है !
  • 18-अप्रैल-2010 को चत्तल सेवा समिति ने बारासात स्टेडियम में उनकी कांस्य प्रतिमा स्थापित की जिसका लोकार्पण मास्टर दा के ही साथी , जिनकी आयु 100 वर्ष से अधिक है , श्री विनोद बिहारी चौधरी जी ने किया  !

2010 में प्रसिद्ध निर्देशक आशुतोष गोवारिकर ने चटगांव विद्रोह  पर आधारित मानिनी चटर्जी की पुस्तक " Do And Die " (करो और मरो ) पर फिल्म बनायीं जिसमें मास्टर दा का किरदार अभिषेक बच्चन  और प्रीतिलता जी का किरदार दीपिका पादुकोण ने निभाया है !


13.3.11

भारत के सांसदों का वेतन

              आपने अपने देश के नेताओं से यह बात तो कई बार सुनी होगी की " हम तो जनता के सेवक हैं , हम तो जनसेवा करने के लिए राजनीती में आये हैं ,आदि " पर आपने कभी यह देखा है की सेवक की तनख्वाह मालिक  से ज्यादा हो ?  नहीं , तो अपने सांसदों को देख लीजिए , भारत में प्रति व्यक्ति आय 44 ,345 (जून,10)   है  जबकि वास्तविक आंकड़ों को देखा जाये तो देश में  84 करोड़ से ज्यादा लोग 20  रु. प्रति दिन पर गुजारा करने को मजबूर हैं वहीँ सांसदों का  वेतन  50,000 रु. प्रति माह है !         संसदीय समिति ने तो इनका वेतन 16,000 से सीधे 80,000 करने की सिफारिश की थी पर जगह वेतन बढाकर सिर्फ 50,000 ही किया गया , इसके अलावा उन्हें मिलने वाली अन्य सुविधाएं हैं ->

  1)  मंत्रिमंडल ने हर सांसद को दफ़्तर के लिए मिलने वाले ख़र्च को 20 हज़ार रुपए प्रति माह से बढ़ाकर 40 हज़ार रुपए कर दिया है,
 2) चुनाव क्षेत्र भत्ता भी बढ़ाया गया है और इसे 20 हज़ार रुपए प्रति महीने से बढ़ाकर 40 हज़ार रुपए कर दिया गया है,
 3) हर सांसद को मिलने वाले ब्याज मुक्त निजी कर्ज़ की राशि एक लाख रुपए से बढ़ाकर चार लाख रुपए कर दी गई है,
4) वाहन के इस्तेमाल के लिए जहाँ पहले प्रति किलोमीटर 13 रुपए मिलते थे, वहीं सांसद अब 16 रुपए प्रति किलोमीटर  पाते हैं,
5) हर सांसद का पति या पत्नी अब पहली श्रेणी में आ जा सकता है ,
6) केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सांसदों की पेंशन में भी वृद्धि की है और अब यह आठ हज़ार रुपए प्रति माह से बढ़कर 20 हज़ार रुपए प्रति महीना हो गयी है!

'संसद का अपमान'

सांसदों के वेतन में जो वृद्धि की गई है वह संसदीय समिति द्वारा प्रस्तावित 80,001 रुपए से कम है !इस पर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, शिवसेना, अकाली दल के सांसदों ने मिलकर विरोध किया और संसद में नारे लगाए - "सांसदों का अपमान बंद करें." !  वे माँग कर रहे थे कि सरकार सांसदों का वेतन 80,000 करे !जब शोर-शराबा नहीं रुका तो स्पीकर मीरा कुमार ने सदन की  कार्यवाही स्थगित कर दी ! 
         कोई इन लालची और बेशर्म सांसदों से पूछे की जब यही सांसद संसद में काम ठप्प करके नारेबाजी करते हैं और जनता के खून पसीने के टैक्स की करोड़ों की कमाई को एक दिन में उड़ा देते हैं तब संसद का अपमान नहीं होता है !  
  पर गलती नेताओं की नहीं हमारी है जो इनकी बातों में आकर जाति , धर्म ,प्रांत ,भाषा के आधार पर आपस में लड़ते रहते हैं और यह पार्टियां जो वैसे देश हित के  हर मुद्दे पर लडती हैं वो सांसदों का वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर हमेशा एकमत ही होती हैं !
        कितने कमाल की बात है इन लोगों को ही यह हक़ है की ये अपना वेतन बढ़ाने का फैसला भी खुद ही कर लेते हैं ! काश देश के मजदूरों को भी अपनी मजदूरी तय करने का हक़ होता ,किसानों को अपनी फसल की कीमत तय करने का हक़ होता और भूखों को भर पेट खाने का हक़ होता !

10.3.11

पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जी

          लाला लाजपत राय जी बहुमुखी प्रतिभा के dhanee थे ! वह एक लेखक, राजनीतिग्य , उत्कृष्ठ समाजसेवी ,पंजाब नॅशनल बैंक व लक्ष्मी इंश्योरेंस कंपनी के संस्थापक भी थे किन्तु उनकी सर्वाधिक प्रसिधी एक महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में ही है !  

प्रारंभिक जीवन व समाज-सेवा
लाला जी का जन्म 28-जनवरी-1865 को पंजाब राज्य के मोंगा जिले के दुधिके गाँव में हुआ था ! उनके पिता श्री लाला राधा किशन आजाद जी सरकारी स्कूल में उर्दू के शिक्षक थे जबकि उनकी माता देवी गुलाब देवी धार्मिक महिला थीं !
            लाला जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे व धन , आदि की अनेक कठिनाइयों के पश्चात् भी उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की ! 1880 में कलकत्ता यूनिवर्सिटी व पंजाब यूनिवर्सिटी की प्रवेश परीक्षाएं पास करने के बाद उन्होंने लाहोर गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिला ले लिया व कानून की पढाई प्रारंभ की ! लेकिन घर की माली हालत ठीक न होने के कारन दो वर्ष तक उनकी पढाई बाधित रही !

               लाहोर में बिताया गया समय लाला जी के जीवन में अत्यधिक महत्वपूर्ण साबित हुआ और यहीं उनके भावी जीवन की रूप-रेखा निर्मित हो गयी !  उन्होंने  भारत के गौरवमय इतिहास का अध्ययन किया और महान भारतीयों के विषय में पढ़कर  उनका हृदय द्रवित हो उठा ! यहीं से उनके मन में राष्ट्र प्रेम व राष्ट्र सेवा की भावना का बीजारोपण हो गया !कानून की पढाई के दौरान वह लाला हंसराज जी व पंडित गुरुदत्त जी जैसे क्रांतिकारियों के संपर्क में आये ! यह तीनों अच्छे मित्र बन गए और 1882 में आर्य समाज के सदस्य बन गए !  उस समय आर्य समाज समाज-सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था और यह पंजाब के युवाओं में अत्यधिक  लोकप्रिय था !

                    1885 में उन्होंने लाहोर के गवर्नमेंट कॉलेज से द्वितीय श्रेणी में वकालत की परीक्षा पास की और हिसार में अपनी कानूनी प्रैक्टिस प्रारंभ कर दी ! प्रेक्टिस के साथ-साथ वह आर्य समाज के सक्रीय कार्यकर्ता भी बने रहे ! स्वामी दयानंद जी की म्रत्यु के पश्चात् उन्होंने अंग्लो-वैदिक  कॉलेज हेतु धन एकत्रित करने में सहयोग किया ! आर्य समाज के तीन कक्ष्य थे : समाज सुधार, हिन्दू धर्म की उन्नति और शिक्षा का प्रसार ! वह अधिकांश समय आर्य समाज के सामाजिक कार्यों में ही लगे रहते ! वह सभी सम्प्रदायों की भलाई के प्रयास करते थे और इसी का नतीजा था की वह हिसार म्युनिसिपल्टी हेतु निर्विरोध चुने गए जहाँ की अधिकांश जनसँख्या मुस्लिम थी !

समाज-सेवा और राजनीतिक जीवन

            लाला जी के मन में अब स्वतंत्रता की उत्कट भावना पैदा हो चुकी थी और इसीलिए 1888 में 23 वर्ष की आयु में उन्होंने समाज सेवा के साथ-साथ राजनीती में भी प्रवेश किया और भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के सदस्य बन गए !  जब पंजाबी प्रतिनिधिमंडल के साथ उन्होंने इलहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन   में भाग लिया तो उनका जोरदार स्वागत हुआ और उनके उर्दू भाषण ने सभी का मन मोह लिया !  अपनी योग्यता के बल पर वह जल्द ही कांग्रेस के लोकप्रिय नेता बन गए !

             लगभग इसी समय जब सर सैयद अहमद खान ने कांग्रेस से अलग होकर मुस्लिम समुदाय से यह कहना शुरू किया की उसे कांग्रेस में जाने की बजाय अंग्रेज सरकार का समर्थन करना चाहिए तब लाला जी ने इसके विरोध में उन्हें "कोहिनूर" नामक उर्दू साप्ताहिक में खुले पत्र लिखे जिन्हें काफी प्रशंसा मिली !

        1892 में पंजाब हाईकोर्ट में वकालत करने हेतु वह हिसार से लाहोर चले गए  ! यहाँ भी लालाजी राष्ट्र सेवा में जुटे रहे !

         उन्होंने लेखन द्वारा भी अपना प्रेरक कार्य जरी रखा और शिवाजी, स्वामी दयानंद, मेजिनी, गैरीबाल्डी जैसे प्रसिद्ध लोगों की आत्मकथाएं अनुवादित व प्रकाशित कीं ! इन्हें पढ़कर अन्य लोगों ने भी स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघर्ष की प्रेरणा प्राप्त की !

        लाला जी जन सेवा के कार्यों में तो सदैव ही आगे रहते थे इसीलिए 1896 में जब सेन्ट्रल प्रोविंस में भयानक सूखा पड़ा तब लाला जी ने वहां अविस्मर्णीय सेवाकार्य किया !  जब वहां सैकड़ों निर्धन, अनाथ, असहाय मात्र इसाई मिशनरियों की दया पर निर्भर थे और वह उन्हें सहायता के बदले अपने धर्म में परिवर्तित कर रहीं थीं तब लाला जी ने अनाथों के लिए एक आन्दोलन चलाया व जबलपुर, बिलासपुर,आदि अनेक जिलों के 250 अनाथ बालकों को बचाया और उन्हें पंजाब में आर्य समाज के अनाथालय में  ले आये ! उन्होंने कभी भी धन को सेवा से ज्यादा महत्व नहीं दिया और जब उन्हें प्रतीत हुआ की वकालत के साथ-साथ समाज सेवा के लिए अधिक समय नहीं मिल पा रहा है तो उन्होंने अपनी वकालत की प्रेक्टिस कम कर दी !

      इसी प्रकार 1899 में जब पंजाब, राजस्थान, सेन्ट्रल प्रोविंस, आदि में और भी भयावह अकाल पड़ा और 1905 में कांगड़ा जिले में भूकंप के कारन जन-धन की भारी हानि हुई तब भी लालाजी ने आर्य समाज के कार्यकर्त्ता के रूप में असहायों की तन,मन,धन से सेवा-सहायता की !

          उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन  में महत्वपूर्ण योगदान दिया !  भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस में उन्होंने रचनात्मकता, राष्ट्र निर्माण व आत्मनिर्भरता पर जोर दिया ! कांग्रेस में वह बाल गंगाधर तिलक जी व बिपिनचंद्र पाल जी के साथ उग्रवादी विचारधारा से सहमत थे और यह तीनों " लाल-बाल-पाल " नाम से प्रसिद्ध थे ! जहाँ उदारवादी कांग्रेसी अंग्रेज सरकार की  कृपा चाहते थे वहीँ उग्रवादी कांग्रेसी अपना हक़ चाहते थे ! लाला जी मानते थे की स्वतंत्रता भीख और प्रार्थना से नहीं बल्कि संघर्ष और बलिदान से ही मिलेगी ! 

             बंगाल विभाजन के समय उन्होंने भी स्वदेशी, स्वराज और विरोध के राष्ट्रिय आन्दोलन में बढ़-चढ़ के भाग लिया था ! 1906 में जब कांग्रेस के उदारवादी और उग्रवादी धडों में विवाद हुआ तब उन्होंने मध्यस्थता करने का बहुत प्रयास किया ! 1907 में जब तिलक जी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद  हेतु उनका नाम प्रस्तावित किया लेकिन विवाद की संभावना देखते हुए लाला जी ने अपना नाम आगे नहीं बढ़ने दिया !

             लाला जी मानते थे की राष्ट्रिय हित के लिए विदेशों में भी भारत के समर्थन में प्रचार करने हेतु एक संगठन की जरूरत है ताकि पूरी दुनिया के सामने भारत का पक्ष रखा जा सके और अंग्रेज सरकार का अन्याय उजागर किया जा सके ! इसीलिए 1914 में वह ब्रिटेन यात्रा पर गए ! यहाँ से वह अमेरिका गए जहाँ उन्होंने " इन्डियन होम लीग सोसायटी ऑफ़ अमेरिका " की स्थापना की और " यंग इण्डिया " नामक पुस्तक लिखी ! इसमें अंग्रेज सरकार का कच्चा चिटठा खोला गया था इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने इसे प्रकाशित होने से पूर्व ही इंग्लॅण्ड और
 भारत में प्रतिबंधित कर दिया !  प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् वह भारत वापस आ गए !

            उन्होंने पंजाब में जलियांवाला नरसंहार के विरोध में असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया ! उन्हें अनेक बार जेल जाना पड़ा लेकिन वह पीछे नहीं हटे ! जब चौरी-चौरा घटना के बाद गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन स्थगित किया तब लाला जी इससे बहुत निराश हुए !   1925 में वह केन्द्रीय विधान सभा के सदस्य भी चुने गए !


म्रत्यु
           1928 में सात सदस्यीय सायमन कमीशन भारत आया जिसके अध्यक्ष सायमन थे ! इस कमीशन को अंग्रेज सरकार ने भारत में संवेधानिक सुधारों हेतु सुझाव देने के लिए नियुक्त किया था जबकि इसमें एक भी भारतीय नहीं था ! इस अन्याय पर भारत में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस ने पूरे देश में सायमन कमीशन के शांतिपूर्ण विरोध का निश्चय किया !
    इसीलिए जब 30-अक्टूबर-1928 को सायमन कमीशन लाहोर पहुंचा तब वहां उसके विरोध में लाला जी ने मदन मोहन मालवीय जी के साथ शांतिपूर्ण जुलूस निकाला ! इसमें भगत सिंह जैसे युवा स्वतंत्रता सेनानी भी शामिल थे ! पुलिस ने इस अहिंसक जुलूस पर लाठी चार्ज किया ! इसी लाठीचार्ज में लालाजी को निशाना बनाकर उन पर जानलेवा हमला किया गया जिस से उन्हें घातक आघात लगा और अंतत: 17-नवम्बर-1928 को यह सिंह चिर-निद्रा में सो गया ! अपनी म्रत्यु से पूर्व लाला जी ने भविश्यवाणी की थी की " मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी अंग्रेज सरकार के ताबूत में अंतिम कील साबित होगी ! " , जो की सच साबित हुई !

           लाला जी की इस हत्या ने भगत सिंह, आदि क्रांतिकारियों को उद्वेलित कर दिया ! अभी तक वह गाँधी जी के अहिंसक आन्दोलन में जी-जान से जुड़े थे किन्तु जब उन्होंने देखा की शांतिपूर्ण विरोध पर भी दुष्ट अंग्रेज सरकार लाला जी जैसे व्यक्ति की हत्या कर सकती है तो उन्होंने इस अन्याय  व अत्याचार का बदला लेने की ठान ली और लाला जी के हत्यारे अंग्रेज अधिकारी सौन्ड़ेर्स को मारकर ही दम लिया !

      लाला जी की माँ श्रीमती गुलाब देवी की म्रत्यु  टी.बी. के कारण हुई थी इसीलिए लाला जी ने 1927 में उनकी स्मृति में एक ट्रस्ट की स्थापना की जिसका उद्देश्य था महिलाओं के लिए टी.बी.  होस्पीटल की स्थापना करना !  इस  का निर्माण 1934 में पूरा हो गया और महात्मा गाँधी ने इसका उद्घाटन किया किन्तु दुर्भाग्यवश लाला जी इस सुअवसर पर जीवित न थे !

प्रेरणायादगार
  • 1895 में लाला जी के सहयोग से "पंजाब नॅशनल बैंक" व लक्ष्मी इंश्योरेंस कंपनी की स्थापना हुई !    
  •    उन्होंने राष्ट्रिय भावना के प्रचार हेतु उर्दू में "वंदे मातरम" और अंग्रेजी में "द पीपल" नामक साप्ताहिक समाचारपत्र निकाले !
  •    उन्होंने अनाथ बालकों के लिए अनेक अनाथालयों की स्थापना की !
  • उनके सहयोग से ही " ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस" नामक श्रमिक संघ की स्थापना हुई और वह उसके प्रथम अध्यक्ष भी बने !
 उनकी जन्मशती के अवसर पर पंजाबी समाज के व्यक्तियों द्वारा शिक्षा के प्रसार हेतु " लाला लाजपत राय ट्रस्ट " की स्थापना की गयी !
उनके नाम पर अनेक स्थानों, होस्पीटलों, संस्थानों, स्कूलों, आदि का नाम रखा गया है !
       लाला जी सच्चे अर्थों में राष्ट्र प्रेमी थे ! वह केवल "पंजाब के सिंह" ही नहीं बल्कि पूरे भारत के सिंह थे जिनका जीवन हर भारतीय के लिए प्रेरणा का अविरल स्त्रोत है !

1.3.11

महर्षि दयानंद सरस्वती

                                   महर्षि दयानंद सरस्वती भारत के प्रमुख विद्वान,सन्यासी ,समाज सुधारक और आर्य समाज के संस्थापक हैं ! सर्वप्रथम उन्होंने ही स्वराज का नारा दिया था जिसे बाद में श्री लोकमान्य तिलक ने अपनाया ! उन्होंने तत्कालीन समाज में प्रत्येक धर्म में व्याप्त  अंधविश्वासों का विरोध  किया और सनातन वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना की ! इसी क्रम में उन्होंने "वेदों की और लौटो " का साश्वत नारा दिया ! पूर्व राष्ट्रपति श्री राधाकृष्णन के अनुसार वह आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक थे !

                                                         ऐसे महान व्यक्तित्व से अनेक महापुरुषों ने प्रेरणा प्राप्त की जिनमें विनायक दामोदर सावरकर ,दुष्ट कर्जन वायली को मारने वाले वीर मदन लाल धींगरा, शहीदे आजम भगत सिंह ,लाला  हरदयाल , स्वामी श्रधानंद , मेडम भीकाजी कामा  ,आदि प्रमुख हैं ! उन्हीं के प्रमुख शिष्य श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा ने लन्दन में "इण्डिया हाउस " की स्थापना की थी जो की वहां के युवा क्रांतिकारियों की प्रमुख शरण स्थली थी ! उनकी राशन "सत्यार्थ प्रकाश " ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पथ प्रदर्शन किया !
                          श्री दयानंद जी कर्म , सिद्धांत में संशयवाद तथा ब्रह्मचारी में विश्वास करने वाले सन्यासी थे ! वह सदेव स्त्रियों को पुरुषों के बराबर स्थान देते थे ! उन्होंने सदेव स्त्री शिक्षा और स्त्रियों द्वारा धार्मिक ग्रंथों के पाठ को प्रोत्साहन दिया ! उन्होंने वेदों का संस्कृत भाषा से हिंदी में अनुवाद किया ताकि साधारण  जन -मानस  भी  वेदों को पढ़ और समझ  सके  !

प्रारंभिक जीवन
                  स्वामीजी का जन्म श्री करशंजी लालजी व देवी माँ यशोदाबाई की संतान के रूप में  27-फ़रवरी-1824 को काठियावाड़ (गुजरात) के गाँव टंकारा में हुआ था ! उनका परिवार समृद्ध व धर्मनिष्ठ ब्रह्मण परिवार था ! मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण उनका नाम "मूलशंकर" रखा गया ! बचपन में ही उन्होंने संस्कृत , वेद व अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन प्रारंभ कर दिया था !
                   बचपन में ही घटित कुछ घटनाओं ने उनके मन में परम्परागत हिन्दू धर्म व इश्वर के विषय में प्रश्न उत्पन्न कर दिए थे जिनके उत्तरों की खोज में अंतत: वह सन्यासी बन गए  ! 
                एक बार शिवरात्रि के अवसर पर वह परिवार सहित शिवपूजन हेतु मंदिर गए ! रात्रि में उनका परिवार सो गया  किन्तु बालक मूलशंकर जग रहे थे ! उन्होंने देखा की एक चूहा शिव जी की प्रतिमा के पास घूम रहा है और उनके भोग को खा रहा है !यह देखकर उन्हें अत्यधिक आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा की जो इश्वर अपने भोग की रक्षा नहीं कर सकता वह इश्वर सम्पूर्ण मानव जाति की रक्षा कैसे कर सकता है ? और तभी उन्होंने अपने पिता से कहा की वह ऐसे असहाय  इश्वर की आराधना नहीं कर सकते ! यहीं से उनके ह्रदय में मूर्तिपूजा के विरुद्ध संशय पैदा हो गया !

              इसी प्रकार हैजे के कारण अल्पायु में ही अपनी छोटी बहन और चाचाजी की म्रत्यु ने उनके ह्रदय को झकझोर कर रख दिया और उनके मन में जीवन-म्रत्यु को लेकर अनेकों प्रश्न खड़े होने लगे ! उन्होंने यह प्रश्न अपने परिजनों से पूछने आरम्भ कर दिया इससे उनके परिजनों का चिंतित होना स्वाभाविक था ! उनके परिवार ने उनका विवाह करना चान्हा किन्तु उन्होंने तो निश्चय कर लिया था की विवाह उनके लिए नहीं है और इसीलिए 1846 को गृह त्याग कर वह घुमंतू सन्यासी बन गए !
   उन्होंने पाणिनि के व्याकरण तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया और उन्हें विश्वास हुआ की इश्वर की खोज की जा सकती है ! लगभग दो दशकों तक इश्वर की खोज में भटकने के पश्चात् उनकी भेंट मथुरा में स्वामी विरजानंद से हुई और उन्हें स्वामीजी ने अपना गुरु बना लिया !   स्वामी विरजानंद ने उन्हें उनकी सभी पुस्तकों को फेंक देने के लिए कहा ताकि वह अभी तक सीखे हुए अपने सभी ज्ञान को  भुला दें और एक नयी स्लेट की तरह दोबारा वेदों के अध्ययन से अपनी शिक्षा प्रारंभ करें क्योंकि वेद ही सर्वाधिक प्राचीन और मूल ग्रन्थ हैं ! मूलशंकर जी ने स्वामी विरजानंद के सान्निध्य  में ढाई वर्षों तक अध्ययन किया ! शिक्षा पूर्ण होने पर मूलशंकर जी ने विरजानंद जी से उनकी गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया इस पर महान संत श्री विरजानंद जी ने उनसे कहा की वह यदि गुरु दक्षिणा देना चाहते हैं तो इसके लिए वह पूरे समाज में वेदों का प्रसार करें और समाज का कल्याण करें ! स्वामी दयानंद जी ने अपने गुरु की इस इच्छा को शिरोधार्य किया इसी ध्येय की पूर्ती में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया ! यहीं से उनका नाम स्वामी दयानंद सरस्वती रखा गया !
  स्वामी दयानंद सरस्वती जी का मिशन
स्वामीजी ने अपने प्राणों की परवाह किये बिना तत्कालीन हिन्दू समाज में सुधार का बीड़ा उठा लिया ! इसके लिए उन्होंने पूरे देश में यात्राएं कीं और प्रजा की आँखों से अंधविश्वासों का पर्दा हटाने के लिए अनेक धार्मिक विद्वानों व  पंडितों को शास्त्रथ हेतु चुनोती दी और अपनी तर्क बुधि व ज्ञान के आधार पर सदेव विजयी रहे ! उनका मानना था की हिन्दू धर्म के भ्रष्ट होने का प्रमुख कारण है की पुजारी वर्ग स्व-महत्व के उद्देश्य से वेदों के मूल सिधांत से भटक गया है ! इस वर्ग ने सामान्य जन को वेदों के अध्ययन की जगह कर्मकांडों में लगा दिया है जैसे गंगा स्नान करना या वर्षगांठ पर पंडितों को भोज देना ! इसे स्वामीजी अन्धविश्वास या स्व-सेवा कहते थे !
                                          अनेक लोगों ने यह गलत धारणा बना रखी है की स्वामीजी कट्टर हिंदूवादी थे व अन्य धर्मों से विद्वेष रखते थे जो की पूर्णत: गलत है ! वास्तव में वह सभी धर्मों में व्याप्त कुरीतियों व अंधविश्वासों के खिलाफ थे यदि ऐसा न होता तो वह हिन्दू धर्म में व्याप्त मूर्ती-पूजा , कर्मकाण्डों , अवतारवाद, तीर्थयात्राएं , पशु-बलि, बहुदेववाद , जातिवाद, बल विवाह, छूआछूत ,आदि का विरोध कभी नहीं करते ! उनके अनुसार मानव सेवा ही सच्चा धर्म है और वैदिक धर्म ही सनातन और सच्चा धर्म है !

वैदिक स्कूलों की स्थापना
 समाज में वैदिक धर्म, संस्कृति और मूल्यों की पुन: स्थापना के लिए उन्होंने वैदिक स्कूलों की स्थापना की !ऐसा पहला स्कूल 1869 में फर्रुखाबाद में खोला गया और इसकी सफलता से प्रेरित होकर 1870 में तीन स्थानों - मिर्जापुर , कासगंज  व छलेसर में खोले गए ! 1873 में एक स्कूल वाराणसी में भी खुला ! इसी भावना से उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की !
         इन स्कूलों में छात्र मूर्तिपूजा की जगह संध्या (वेदों के मन्त्रों द्वारा ध्यान व प्रार्थना करना ) करते , दिन में दो बार अग्निहोत्र यग्य करते और केवल वही ग्रन्थ पढाये जाते जो वेदों को स्वीकार करते थे ! यहाँ ब्राम्हणों के अलावा अन्य जाति के छात्रों को भी संस्कृत की शिक्षा दी जाति थी और सभी छत्रों के खाने, पीने, रहने, कपड़ों और किताबों की स्कूल द्वारा ही की जाति थी !
      इतना सब होने के बाद भी यह स्कूल अधिक नहीं चल सके क्योंकि एक ओर धन का अभाव तो था ही वहीँ  योग्य शिक्षक मिलने भी मुश्किल थे और उचित पुस्तकों का भी अभाव था !

     अपनी यात्राओं के दोरान स्वामीजी ब्रह्म समाज के अनुयायियों के संपर्क में भी आये ! स्वामीजी और ब्रह्म समाज की विचारधारा में काफी समानता भी थी किन्तु प्रमुख अंतर यही था की स्वामीजी सिर्फ वेदों को ही इश्वर की वाणी मानते थे और उनके ऊपर कुछ नहीं मानते थे !

सत्यार्थ प्रकाश
                                             अपने कलकत्ता  प्रवास के बाद स्वामीजी ने समाज सुधार  के अपने तरीके में अनेक परिवर्तन किये जिनमें सबसे प्रमुख था हिंदी में व्याख्यान देना ! इससे पहले वह सदा संस्कृत में  ही संवाद और शास्त्रार्थ करते थे ! इससे  उन्हें विद्वानों व आम लोगों में अत्यधिक  सम्मान  प्राप्त हो चुका था किन्तु अधिसंख्य जनता को अपनी बात समझाना मुश्किल था क्योंकि वह संस्कृत नहीं जानती थी ! इसीलिए स्वामीजी ने आम जनता  की भाषा हिंदी को चुना और अब समाज के निचले तबके को भी वह अपनी बात समझा सके !

                     वाराणसी में स्वामीजी द्वारा हिंदी में दिए गए ऐसे ही कुछ व्याख्यानों को सुनकर वहीँ के एक सरकारी अधिकारी श्री  राज जयकिशन दास ने उन्हें सुझाव दिया  की और भी अधिक लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए क्यों न स्वामीजी  अपने विचारों को एक पुस्तक में प्रकाशित करें जिसे जनता में बनता जा सके ! स्वामीजी को यह सुझाव पसंद आया ! 1874 में जून से सितम्बर के बीच उन्होंने इश्वर, वेद, धर्म, आत्मा, विज्ञान,  दर्शन, शिक्षा , सरकार व भारत और विश्व के संभावित भविष्य पर अपने व्यापक विचार दिए जिन्हें उनके लेखक पंडित भीमसेन शर्मा जी ने लेखनबढ किया ! यही लेखन 1875 में सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ !     

आर्य समाज की स्थापना
    मुंबई में अनेक अनुयायीयों के आग्रह पर स्वामीजी ने अंतत:  10-अप्रैल-1875  को आर्य समाज  नामक सुधार आन्दोलन की स्थापना की ! यद्यपि स्वामीजी ऐसा नहीं चाहते थे किन्तु जब मुंबई में  एक    धार्मिक सभा में वह व्याख्यान दे रहे थे तभी एक श्रोता ने उनसे पूंछा की "क्या हमें एक नया समाज बनाना चाहिए ?" इस पर स्वामीजी ने कहा "यदि तुम समाज  कीस्थापना द्वारा समाज का कुछ भला कर सकते हो तो समाज बनाओ ...  " 
     अंतत:  100 अनुयायियों के साथ 10 -अप्रैल-1875  को आर्य समाज  की स्थापना हुई ! सदस्यों ने स्वामीजी से इसका अध्यक्ष अथवा गुरु बनने का आग्रह किया लेकिन उन्होंने कृपापूर्वक मना कर दिया और मात्र उसके साधारण सदस्य  ही बने !

आर्य समाज  के दस सिद्धांत 
   24-जून-1877 को दुसरे प्रमुख आर्य समाज  की स्थापना लाहोर में हुई और यहीं  आर्य समाज के प्रमुख दस सिद्धांत सूचीबद्ध किये गए :
  1.  सभी सत्य ज्ञान और इस ज्ञान द्वारा जो भी जाना गया है उसका प्रथम आधार परमेश्वर है !
  2. इश्वर अस्तित्ववान और  आनन्दमय है ! वह निराकार ,सर्वज्ञ, अजन्मा, असीम, अपरिवर्तनीय,  सबका आधार, सबका स्वामी,  सर्वव्यापी,  अंतर्यामी,  निर्भय, अनश्वर,  अनन्त, पवित्र और सबको बनाने वाला है ! केवल वही उपासना के योग्य है !
  3. वेद सत्य ज्ञान के  पवित्र लेख हैं ! यह आर्यों का प्रथम कर्तव्य है की वह वेदों को पढ़ें, पढाएं, चर्चा करें और सुनें !
  4. हर इंसान को हमेशा सत्य को स्वीकार करने और असत्य को छोड़ देने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए !
  5. हर इंसान को हमेशा धर्म  के अनुसार कर्म करने चाहिए अर्थात सत्य-असत्य पर गहन चिन्तन के बाद !
  6. सम्पूर्ण विश्व का भौतिक, आध्यात्मिक व सामाजिक कल्याण करना ही इस समाज का मूल उद्देश्य है !
  7. सदा धर्म के अनुसार  प्रेम और न्याय से व्यवहार करें !
  8. प्रत्येक को सत्य को प्रोत्साहित व असत्य का नाश करना चाहिए ! 
  9. प्रत्येक को केवल अपने कल्याण के बारे में नहीं सोचना चाहिए बल्कि दूसरों के कल्याण में ही अपना कल्याण समझना चाहिए !
  10. प्रत्येक व्यक्ति को खुद को समाज के लोकोपकारवादी शासन के अधीन समझना चाहिए यद्यपि व्यक्तिगत कल्याण हेतु सभी स्वतंत्र हैं !
                  यद्यपि सिख समाज से आर्य समाज के कुछ मतभेद भी हुए लेकिन फिर भी भगत सिंह (सिख) जी जैसे महँ क्रन्तिकारी आर्य समाज से प्रभावित रहे और उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल जी जैसे प्रमुख आर्य समाजी और क्रन्तिकारी के साथ स्वतंत्रता हेतु संघर्ष भी किया !

संत का देहावसान 
                       स्वामीजी की सहज म्रत्यु नहीं हुई थी अपितु एक नर्तकी ने प्रतिशोध लेने के लिए unki हत्या करायी थी !
                   1883 में जोधपुर के महाराजा के निमंत्रण पर स्वामीजी उनके महल गए क्योंकि महाराजा उनके शिष्य बनने को उत्सुक थे ! एक दिन जब स्वामीजी महाराजा के कक्ष में गए तो वहां उन्होंने एक नर्तकी को पाया ! इस पर स्वामीजी ने उन्हें उस नर्तकी और सभी अनैतिक कामों को छोड़ देने और सच्चे आर्य की तरह धर्म का पालन करने के लिए कहा ! नर्तकी को यह बहुत बुरा लगा और उसने बदला लेने के लिए उनके रसोइये को धन देकर उनके दूध में विष मिलवा दिया ! विष मिला  दूध पीकर स्वामीजी सोने चले गए  किन्तु तीव्र जलन होने के कारन जल्द ही जाग गए ! वह तुरंत समझ गए की उन्हें विष दिया गया है किन्तु तब तक विष उनके पूरे रक्त में घुल चुका था ! स्वामीजी म्रत्युशैय्या पर पड़ गए और अति दुखदाई कष्ट से तड़पने लगे ! अनेक डॉक्टर उन्हें ठीक करने आये  किन्तु उनकी  दशा बिगडती गयी ! उनके पूरे शरीर पर बड़े-बड़े घाव हो गए जिनसे खून बहने लगा ! स्वामीजी की ऐसी दशा देखकर उस रसोइये को भी बहुत पश्चाताप हुआ और उसने स्वामीजी के पास जाकर रोते हुए अपने पाप की क्षमा मांगी ! और स्वामीजी ने आशा के अनुरूप उसे न सिर्फ क्षमा ही किया बल्कि धन देकर उसे तुरंत राज्य से बहार भेज दिया क्योंकि सच पता चल जाने पर महाराजा उसे कठोर दंड देते !
         अंतत: 31-अक्टूबर-1883 को इस परम दिव्य आत्मा ने 59 वर्ष की आयु में देहत्याग किया !

रचनायें
  •   स्वामीजी ने लगभग 60 ग्रंथों की रचना की जिनमें 6 वेदांगों की व्याख्या , अष्टाध्यायी पर अधूरी टीका, संस्कारविधि, भ्रत्निवरण , रत्नमाला, वेदभाश्य, आदि प्रमुख हैं !
  • अपने साहित्य और वैदिक ग्रंथों के प्रकाशन के लिए उन्होंने अजमेर में "परोपकारिणी सभा " की स्थापना की !
  • सत्यार्थ प्रकाश (1875)
  • रिग्वेदादी भाष्य भूमिका !
  • Glorious Thoughts of Swami Dayananda
  • An introduction to the commentary on the Vedas
  • आत्मकथा
  • The philosophy of religion in India