12.1.11

स्वामी विवेकानंद जी

                                                  स्वामी विवेकानंद
      स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस को भारत में "युवा दिवस" के रूप में मनाया जाता है ! स्वामीजी  भारत के उन महापुरुषों में से हैं जिन्होंने भारत के गौरव  और भारतीय अध्यात्म को पूरी दुनिया में बढाया , मानव सेवा को  ही ईश्वर सेवा बताया और  असंख्य भारतीयों को अंधविश्वासों के अँधेरे से निकलकर सच्चे  ईश्वरीय ज्ञान से परिचित  कराया ! 1893 में शिकागो की धर्म संसद में दिया गया उनका ऐतिहासिक भाषण आज भी विश्व प्रसिद्ध है जिसमें उन्होंने " बहेनों  और भाइयों " के  संबोधन से अमेरिकी जनता को सम्मोहित कर लिया था! श्री रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे ! उन्होंने 1897 में रामकृष्ण मठ और  रामकृष्ण मिशन  की स्थापना की !


जन्म और बचपन ->
                                     स्वामी विवेकानंद जी का जन्म  12-जन.-1863  को   प्रात:काल कलकत्ता   के  एक   पारंपरिक कायस्थ परिवारमें  हुआ था तथा उनका मूल   नाम नरेन्द्र नाथ दत्त  था !उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता  हाईकोर्ट में अटोर्नी  थे व् माँ भुवनेश्वरी  देवी एक   पवित्र एव धार्मिक गृहणी थी !  उनकी माँ  ने पुत्र   प्राप्ति केलिए कशी के  वीरेश्वर शिव की  आराधना की और फिर बालक नरेन्द्र नाथ का जन्म हुआ ! उन पर अपने  माता-पिता का काफी प्रभाव रहा , जैसे उन्होंने पिता से  विवेकशीलता तथा माँ से धार्मिक स्वाभाव पाया !अपनी माँ  द्वारा कही गयी एक बात वह अक्सर कहते थे की ,
  " जीवनभर  पवित्र रहो ;अपने सम्मान की रक्षा  करो और दूसरों के सम्मान का उलंघन भी न करो ! सदेव शांत व् मृदु  रहो पर जब आवश्यकता पड़े तब अपने ह्रदय को मजबूत भी बनाओ !"
                                      
  कहा जाता है की वह ध्यान लगाने  में दक्ष थे तथा समाधी की दशा में भी चले जाते थे ! बचपन से ही उन्हें  तपस्वी व् सन्यासियों के प्रति विशेष आकर्षण था !
       उनकी विविध विषयों में रूचि थी जैसे धर्म , दर्शन , इतिहास , समाजशास्त्र , कला , साहित्य , आदि ! उनकी वेदों , उपनिषदों  ,भगवत गीता ,रामायण ,आदि में विशेष रूचि थी ! साथ ही उन्हें शास्त्रीय संगीत का भी अच्छा ज्ञान था और उन्होंने बेनी गुप्ता व् अहमद  खान से संगीत की शिक्षा पाई थी ! वह   बचपन से ही शारीरिक व्यायाम , खेलकूद ,आदि में भी भाग लेते  थे ,  बचपन से ही अंधविश्वासों व जाती के आधार  पर होने वाले भेद-भावों पर प्रश्न करते तथा किसी भी बात को तर्क व  व प्रमाणों  के बिना स्वीकार नहीं करते थे !
 सन 1877 में उनके पिता को रायपुर जाना पड़ा और उनके साथ ही नरेन्द्र व उनका पूरा परिवार भी गया !वहां अच्छे  स्कूल  न होने के कारण नरेन्द्र अपने पिता के साथ आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते हुए समत बिताते  थे ! रायपुर में ही उन्होंने हिंदी सीखी तथा वहीँ पहली बार उनके मन में ईश्वर के अस्तित्व का प्रश्न पैदा हुआ !उनका परिवार 1879 में वापस कलकत्ता आ गया पर रायपुर में बिताये यह दो वर्ष उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले रहे और इसीलिए ही कभी-कभी रायपुर को विवेकानंद जी की ' आध्यात्मिक जन्मभूमि ' भी कहा जाता है !

कॉलेज और ब्रम्ह समाज ->
        नरेन्द्रनाथ ने शुरुआती शिक्षा घर पर ही  प्राप्त की और फिर 1871 में उन्होंने ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के संस्थान में दाखिला लिया ! 1879 में उन्होंने कलकत्ता के प्रेसिडेंसी  कॉलेज की प्रवेश परीक्षा पास की और उसके कुछ समय बाद जनरल अस्सेम्ब्ली  संस्थान,कलकत्ता  (स्कॉटिश  चर्च  कॉलेज  ) में दाखिला लिया ! इस दोरान उन्होंने पाश्चात्य तर्क ,  पाश्चात्य दर्शन और यूरोपीय देशों के इतिहास का अध्यन किया ! 1881 में उन्होंने फाइन आर्ट्स  की परीक्षा पास की और 1884 में  बी. ए. की परीक्षा पास की !
     कहा जाता है की उन्होंने  David Hume, Immanuel Kant, Johann Gottlieb Fichte, Baruch Spinoza, Georg W. F. Hegel, Arthur Schopenhauer, Auguste Comte, Herbert Spencer, John Stuart Mill, और  Charles डार्विन जैसे लेखकों को पढ़ा था !वह हर्बर्ट  स्पेंसर के विकास सिद्धांत से प्रभावित हुए और उन्होंने स्पेंसर की 'शिक्षा' पर लिखी किताब का बंगला भाषा  में अनुवाद किया !कुछ समय तक उनका स्पेंसर के साथ पत्र-व्यव्हार भी रहा ! पाश्चात्य विद्वानों के अध्यन के साथ ही साथ वह संस्कृत के धर्मग्रंथों व बंगाली साहित्य का भी अध्यन करते रहे ! उनके प्रोफेसरों के अनुसार नरेन्द्र 'विलक्षण प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ' थे ! स्कॉटिश  चर्च  कॉलेज  के प्रिंसिपल डा. विलियम हस्ती के अनुसार "नरेन्द्र सचमुच जिनिअस  है, मैं कई जगह घूमा हूँ पर मैंने  ऐसा प्रतिभावान व संभावनाशील युवक नहीं देखा , जर्मन  युनिवर्सिटियों  में भी नहीं ! "  उन्हें "श्रुतिधरा" कहा जाता था अर्थात अद्भुत स्मरण शक्ति वाला !
        नरेंद्र  फ्रीमेसन  लोज के सदस्य बन गए ! उनके प्रारंभिक विश्वासों को ब्रम्ह संकल्पना ने काफी पभावित किया जैसे   निराकार  ईश्वर में  विश्वास और मूर्ती-पूजा का विरोध ! पर अपने  दार्शनिक ज्ञान से भी  उन्हें संतुष्टि नहीं मिली और उत्सुकता बनी रही तब उन्होंने कलकत्ता के अनेक प्रमुख व प्रतिष्ठित लोगों से यह प्रश्न किया की " क्या उन्होंने ईश्वर को साक्षात् देखा है ? " पर कोई भी जवाब उन्हें संतुष्ट नहीं कार पाया!

 श्री रामकृष्ण से भेंट ->
     नरेंद्र  ने श्री रामकृष्ण के बारे में पहली बार अपने कॉलेज में सुना जब उनके प्रिंसिपल विलियम हेस्टि  ने विलियम वोर्ड्स्वेर्थ की  कविता 'the excursion'  के एक
शब्द 'trance' (भाव समाधि) का अर्थ बताते हुए कहा की अगर किसी को इस
शब्द का असली अर्थ जानना है तो उसे तारकेश्वर के रामकृष्ण से मिलना
चाहिए  !यह सुनकर नरेन्द्र सहित कुछ छात्र उनसे मिलने गए.
     1881  में रामकृष्ण से हुई नरेन्द्र की मुलाकात उनके जीवन में क्रन्तिकारी रही !इस मुलाकात के बारे में नरेन्द्र ने कहा की "वह दिखने में एकदम साधारण व्यक्ति थे और बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग करते थे , मैंने सोचा की 'क्या यह कोई  महान शिक्षक हो सकते हैं ?' मैंने उनके पास जाकर उनसे भी वही सवाल किया जो मैंने जीवन-भर दूसरे लोगों से किया था की ' श्रीमान , क्या आप ईश्वर  के अस्तित्व में विश्वास करते हैं ? ' उन्होंने कहा 'हां'  फिर मैंने अगला प्रश्न किया की 'क्या आप यह साबित कार सकते हैं ? ' तो उन्होंने कहा 'हां' मैंने फिर पूछा   'कैसे ?' उन्होंने कहा ' क्योंकि मैं उसे बिलकुल वैसे ही देख सकता हूँ जैसे की तुम्हें अपितु अत्यधिक गहन भाव में !' इस बात ने ही मुझे पूर्णत:  प्रभावित कर  दिया ... मैंने दिन-प्रतिदिन उनके पास जाना शुरू कार दिया और देखा की धर्म वास्तव में दिया भी जा सकता है ! एक स्पर्श , एक द्रष्टि पूरा जीवन बदल सकती है "
 यद्यपि शुरू में नरेन्द्र ने उन्हें अपना गुरु नहीं माना  और उनके विचारों का विरोध किया पर वह उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और उनसे मिलने जाते रहे ! शुरू में उन्हें लगता था की रामकृष्ण जी की परम आनंद की अवस्था और अलौकिक आभास सिर्फ  कल्पना और मतिभ्रम है !
ब्रम्ह समाज का सदस्य होने के नाते वह मूर्तिपूजा , बहुदेववाद और रामकृष्ण जी की काली पूजा का विरोध करते थे ! यहाँ तक की वह अद्वैत वेदान्त  की विचारधारा को ईश-निन्दा और मूर्खता  के समान  मानते थे और यदा-कदा उसका मजाक बनाते थे !
  यद्यपि शुरू में नरेन्द्र ने रामकृष्ण जी और उनकी विचारधारा को नहीं माना पर वह उसे पूर्णत:  नकार भी नहीं सके ! यह शुरू से ही  नरेन्द्र की प्रकृति रही थी कि वह बिना प्रमाणों  के कोई बात नहीं मानते थे , इसी तरह उन्होंने पहले रामकृष्ण जी को परखा , जिन्होंने कभी  उन्हें उनकी तार्किकता को छोड़ने के लिए नहीं कहा और उनके सभी  तर्कों  और आलोचनाओं को धर्य के साथ सुना ! उनका सदेव एक ही जवाब होता था की " सत्य को सभी द्रष्टिकोड़ों  से जानने की कोशिश करो !" पांच वर्षों तक रामकृष्ण जी के प्रशिक्षण में रहने के दोरान नरेन्द्र में यह परिवर्तन आया की अब वह एक व्याकुल , परेशान   ,अधीर युवक से एक परिपक्व पुरुष में बदल गए , जो ईश्वर - प्राप्ति  के लिए सब कुछ त्यागने के लिए तत्पर  था !  अंत में उन्होंने पूर्ण ह्रदय से रामकृष्ण जी को अपना गुरु स्वीकार कार  लिया  और उनके शिष्य बन गए !
1885 में रामकृष्ण जी को गले का कैंसर हो गया अत:  उन्हें कलकत्ता और फिर काशीपुर ले जाया गया !उनके अंतिम दिनों में विवेकानंद और उनके साथी शिष्यों ने रामकृष्ण जी की सेवा की ! वहां भी विवेकानंद  रामकृष्ण जी से अध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करते रहे ! कहा जाता है की काशीपुर में विवेकानंद को निर्विकल्प समाधी का अनुभव हुआ ! अपने अंतिम दिनों में रामकृष्ण जी ने विवेकानंद सहित अपने कुछ शिष्यों को तपस्वी के समान भगवा रंग के कपडे दिए जो रामकृष्ण जी के मठ संबंधी पहला  आदेश बना ! उन्होंने विवेकानंद से अपने साथी शिष्यों का ध्यान रखने  को कहा और उन शिष्यों से कहा कि वह विवेकानंद को अब अपना प्रमुख माने  ! विवेकानंद ने सीखा  था की मानव - सेवा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है ! कहते हैं की जब विवेकानंद ने रामकृष्ण जी के सामने अवतारवाद पर प्रश्न किया तब रामकृष्ण जी ने कहा की " जो राम था , जो कृष्ण  था वही अब इस शारीर  में रामकृष्ण  है ! " धीरे -धीरे रामकृष्ण जी की दशा ख़राब होती गयी और अंतत 16 -अग. -1886 की सुबह उनका देहांत हो गया जिसे उनकी महासमाधि कहा जाता है !
 इंग्लिश में जानकारी के लिए ->
बारानगर मठ (Baranagar Monastery) ->
 श्री रामकृष्ण  जी की म्रत्यु के पश्चात् स्वामी नरेंद्र  जी के नेतृत्व में सभी शिष्यों ने बारानगर के एक पुराने घर में एक संघ की स्थापना की ! इस जीर्ण-शीर्ण घर में नरेन्द्र व अन्य सदस्य ध्यान करते ,  दर्शनशास्त्र तथा रामकृष्ण , आदि-शंकराचार्य ,रामानुज , इसा-मसीह ,आदि आध्यात्मिक गुरुओं की शिक्षाओं पर चर्चा करते हुए समय व्यतीत करते ! इस मठ के शुरुआती दिनों की याद करते हुए नरेन्द्र कहते थे " हमने  बारानगर मठ में अनेक धार्मिक प्रणालियों का अभ्यास किया !हम प्रात: तीन बजे उठकर जप और ध्यान में लीन हो जाते  थे !तब हममें तल्लीनता की कितनी प्रबल भावना थी की हमें यह भी ख्याल नहीं होता था की  संसार का अस्तित्व है भी या नहीं !"

परिव्राजक के रूप में (Wandering monk) ->
  1888 में नरेंद्र जी  ने बारानगर मठ से प्रस्थान किया और वह परिव्राजक बन गए !अब उनके साथ मात्र एक कमंडल ,छड़ी  और उनकी दो पसंदीदा पुस्तकें - भगवत गीता और द  इमिटेशन  ऑफ़ क्राइस्ट  ( The Imitation of christ )   ही थीं ! नरेंद्र जी ने पांच वर्षों तक पूरे भारत का भ्रमण किया ! इस दोरान  उन्होंने शिक्षा के अनेक केन्द्रों का भ्रमण  किया ,  विभिन्न धार्मिक रीती-रिवाजों  और  सामाजिक  जीवन के विविध  स्वरूपों का  दर्शन किया !  लोगों की पीड़ा और दरिद्रता को देखकर उनका हृदय संवेदना से भर उठा  और उन्होंने राष्ट्र की  दशा सुधारने का प्रण कर लिया ! वह केवल भिक्षा से ही जीवनयापन करते थे और अधिकतर पैदल ही घूमते थे ! यदि कोई प्रशंसक  रेल की टिकेट दिला देता तो रेल से यात्रा  करते !
इन यात्राओं के द्वारा वह अनेक लोगों से परिचित हुए और सभी तरह के लोगों के साथ रहे , फिर चाहें वह विद्वान हो , दीवान हो , राजा हो , हिन्दू ,मुस्लिम, इसाई हो ,उच्च जाती का हो या निम्न जाती का हो या सरकारी अधिकारी ही हो !

उत्तर भारत की यात्रा ->
 1888 में नरेंद्र जी ने अपनी यात्रा वाराणसी से शुरू की ! वाराणसी में वह पंडित और बंगाली लेखक बुद्धदेव मुखोपाध्याय और शिव मंदिर के प्रसिद्ध संत त्रिलंग स्वामी से मिले !यहीं वह संस्कृत के प्रमुख विद्वान बाबू प्रमादादास मित्र से मिले , जिन्हें उन्होंने हिन्दू ग्रंथों की विवेचना के सम्बन्ध  में अनेक  पत्र लिखे थे ! वाराणसी के पश्चात् वह अयोध्या ,लखनऊ ,आगरा , वृन्दावन ,हाथरस और ऋषिकेश गए ! हाथरस में वह शरत चन्द्र गुप्ता से मिले जो एक स्टेशन मास्टर थे और नरेंद्र जी के शिष्य बने ! इसके बाद वह इलाहाबाद , गाजीपुर गए ! गाजीपुर में वह अद्वैत वेदांत के ज्ञाता तपस्वी पव्हारी बाबा से मिले ! 1888-1890 के बीच  ख़राब स्वास्थ्य तथा धन की व्यवस्था करने के लिए वह कुछ बार बारानगर मठ वापस गए ! ( क्योंकि मठ की आर्थिक सहायता करने वाले बलराम बोस और सुरेश चन्द्र मित्र का  देहांत हो गया था !)

 हिमालय की यात्रा  ->
  1890 में अपने साथी भिक्षु-बन्धु स्वामी अखंडानंद  के साथ उन्होंने अपनी परिव्राजक की यात्रा जारी  रखी! उन्होंने  नैनीताल ,अल्मोड़ा ,श्रीनगर ,देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार और हिमालय की यात्रा की !कहा जाता है की इस यात्रा के दोरान ही उन्हें विराट जगत और सूक्ष्म जगत (macrocosm and microcosm) का आभास  हुआ जिसका दर्शन हम उनके ज्ञान योग पर दिए गए उस व्याख्यान में करते  है जो उन्होंने बाद में पश्चिम में दिया था ("The CosmosThe Macrocosm and The microcosm ") ! इन यात्राओं के दोरान वह अपने भिक्षु-बंधुओं - स्वामी ब्रम्हानंद ,शारदानंद , तुरीयानन्द ,अखंडानंद और अद्वैतानन्द से मिले ! उन्होंने कुछ दिन मेरठ  में बिताये और फिर वह जन. 1891 में अपने साथी भिक्षुओं को छोड़ दिल्ली  की यात्रा पर अकेले चल पड़े !

राजपूताना  ->
  दिल्ली पहुंचकर स्वामीजी वहाँ के ऐतिहासिक स्थानों का दर्शन करने के पश्चात् वह अलवर पहुंचे ! इसके बाद वह जयपुर गए जहाँ उन्होंने पाणिनि  की अष्टाध्यायी  का अध्यन किया ! यहाँ से वह अजमेर और माउन्ट आबू  गए ! माउन्ट आबू  में उनकी भेंट खेतरी के महाराजा अजित सिंह से हुई , जो उनके उत्कट भक्त और समर्थक बन गए और उन्हें खेतरी आने का निमंत्रण  दिया ! खेतरी में उन्होंने पाणिनि के सूत्रों पर लिखे महाभाष्य का अध्यन किया और यहीं   उनकी भेंट पंडित नारायणदास से हुई !यहाँ ढाई माह रहने के पश्चात् , अक्टूबर के अंत में वह राजस्थान और महाराष्ट्र की यात्रा पर चल पड़े !
पश्चिमी भारत की यात्रा ->
अपनी यात्रा के अगले चरण में वह अहमदाबाद ,वाधवन और लिम्ब्दी गए !अहमदाबाद में उन्होंने मुस्लिम और जैन संस्कृति का अध्यन पूरा किया !लिम्ब्दी में उनकी भेंट ठाकुर साहब जसवंत सिंह से हुई ,जो इंग्लॅण्ड और अमेरिका की यात्रा कर चुके थे ! ठाकुर साहब से ही स्वामीजी को पहली बार पश्चिम जाकर वेदांत पर उपदेश देने का विचार आया ! बाद में वह जूनागढ़ , गिरनार , कच्छ , पोरबंदर , द्वारका , पलिताना और बरोडा गए ! बाद में वह महाबलेश्वर और पुणे गए ! पूना  से जून, 1892 के आसपास वह खंडवा और इंदौर गए ! काठीयावाड  में उन्होंने विश्व धर्म संसद के बारे में सुना और उनके अनुयायियों ने उन्हें उसमें सम्मिलित होने के लिए प्रार्थना की  ! खंडवा के बाद वह जुलाई,1892  में मुंबई पहुंचे !पुणे जाने वाली ट्रेन में उनकी भेंट बाल गंगाधर  तिलक से हुई और कुछ दिन तिलक जी के साथ पुणे में रहने के बाद  स्वामीजी अक्टूबर,1892 में बेलगाँव गए और उसके बाद पंजिम , मार्गाओ  ,धार्वार  और बंगलोर गए !

दक्षिण भारत की यात्रा ->
बंगलोर में उनका परिचय मैसूर रियासत के दीवान के. शेषाद्री अय्यर से हुआ और बाद में वह मैसूर के महाराजा श्री चमराजेंद्र वादियार  के अतिथि बनकर उनके महल में रहे ! बंगलोर से वह त्रिचूर ,कोदंगाल्लूर ,एर्नाकुलम गए !एर्नाकुलम में उनकी मुलाकात नारायण स्वामी के समकालीन चत्ताम्पी स्वमिकल से हुई !एर्नाकुलम से वह पदयात्रा करते हुए , त्रिवेंद्रम , नगरकोइल होते  हुए , कन्याकुमारी पहुंचे ! कहा जाता है की कन्याकुमारी में नरेंद्र ने   भारत भूमि (शिला) के अंतिम छोर पर, जिसे अब " विवेकानंद  राक मेमोरिअल " कहा जाता है , पर बैठकर  तीन दिनों तक समाधी लगायी !कन्याकुमारी में ही उन्होंने 'एक भारत की कल्पना ' की जिसे सामान्य रूप से "1892  का कन्याकुमारी संकल्प" ' ("The Kanyakumari resolve of 1892" ) कहा जाता है ! इसके बारे में वह लिखते हैं ,
       "  कन्याकुमारी में माँ कुमारी के मंदिर में भारतीय भूमि के अंतिम छोर पर बैठकर मुझे अचानक एक  उपाय सूझा : हम इतने सारे  सन्यासी यहाँ-वहां घूमते हैं और लोगों को तत्वमीमांसा  का ज्ञान देते  रहते हैं - यह सब मूर्खता है! एक राष्ट्र के रूप में हम अपनी विशिष्टता खो चुके हैं और यही कारण है भारत  में व्याप्त सभी बुराइयों  का ! हमें लोगों को जगाना होगा  !"
          कन्याकुमारी से वह मदुरे गए जहाँ वह रमनद के राजा भास्कर सेतुपति से मिले ! राजा स्वामीजी के शिष्य बन गए और उनसे शिकागो की धर्म संसद में भाग लेने का निवेदन किया ! मदुरे से वह रामेश्वरम ,पांडिचेरी और मद्रास होते हुए हैदराबाद पहुंचे !मद्रास में उन्हें अलासिंगा पेरूमल और जी.जी. नार्सिम्हाचारी जैसे अपने अनन्य शिष्य  मिले जिन्होंने स्वामीजी की अमेरिकी यात्रा और मद्रास में रामकृष्ण मठ की स्थापना  हेतु धन एकत्रित करने में अपना प्रमुख योगदान दिया ! मद्रास के शिष्यों , मैसूर , रमनद ,खेतरी के राजाओं , दीवानों व अन्य अनुयायियों द्वारा की गयी आर्थिक सहायता से स्वामीजी ने 31 -मई- 1893 को  मुंबई से शिकागो  के लिए प्रस्थान किया और खेतरी के महाराजा के सुझाव पर अपना नाम "विवेकानंद " कर लिया ! 
जापान की यात्रा ->
 1893 में अपनी शिकागो यात्रा के मार्ग में विवेकानंद जी जापान पहुंचे ! जापान में वह नागासाकी, कोबे, योकोहामा ,ओसाका , क्योटो  और टोक्यो जैसे प्रमुख नगरों में गए ! वह जापानियों की स्वच्छता से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने जापानियों को " संसार के सबसे स्वच्छ लोगों में से एक " बताया ! वह न केवल  उनके साफ़ मार्गों और घरों से ही प्रभावित हुए बल्कि उनकी  गतिविधियों ,प्रवृति और भाव भंगिमा से भी बहुत प्रभावित हुए !  यह समय जापान में , प्रथम चीन - जापान युद्ध (1894-1895) और रूस-जापान युद्ध ,से पूर्व तीव्र सैन्य वृद्धि व संगठन  का समय था ! इन तैयारियों के विषय में स्वामी विवेकानंद जी लिखते हैं ,
   " ऐसा लगता है जैसे की जापानी वर्तमान  की आवश्यकताओं के अनुसार  जाग्रत हो गए  है ! अब उनके पास बंदूकों से सुसज्जित पूर्णत  संगठित सेना है , इन बंदूकों को उन्हीं के अधिकारीयों ने बनाया है और उन्हें अद्वितीय माना जाता  हैं !वह लगातार अपनी नौसेना भी बढा रहे हैं !"  
    वहाँ के औद्योगिक विकास के विषय में वह कहते हैं ,
   "  उनकी  फेक्टरियाँ देखने योग्य हैं   और वह (जापानी) अपनी जरूरत की सभी चीजें अपने देश में ही बनाने को प्रतिबद्ध हैं !"
   जापान के तीव्र विकास से भारत की स्थिति  की तुलना करते हुए वह अपने देशवासियों को " शताब्दियों के अंधविश्वासों और अत्याचारों की  सन्तान " कहते हैं !वह उन्हें उनकी मानसिकता के  संकीर्ण छिद्रों से निकलकर बाहर (विदेश)की दुनिया को  देखने को कहते हैं , 
   " मैं बस यह चाहता हूँ की हमारे कुछ युवा हर साल जापान और चीन जायें, खासकर जापान जायें ! भारत आज भी हर उच्चतम और अच्छी वास्तु  का स्वप्नलोक है और तुम , तुम क्या हो ? अपने पूरे जीवनभर गप्प मारने वाले ,निरर्थक बातों वाले  , तुम क्या हो ?  आओ , इन  लोगों को देखो और अपने चेहरों को जाकर शर्म से छुपालो ! मानसिक रूप से दुर्बल लोगों  की संतानों , तुम अपनी जाति से गिर जाओगे अगर तुम बाहर गए तो ! सदियों से अंधविश्वासों के बोझ से तुम्हारी  बुद्धि दबी है , सेकड़ों साल तुमने अपनी शक्ति इस या उस भोजन की पवित्रता और अपवित्रता की चर्चा करने में खर्च की , युगों के सामाजिक अत्याचारों ने तुम्हारे अन्दर की मानवता को नष्ट कर दिया है - तुम क्या हो ? और अब तुम क्या कर रहे हो ? समुद्र किनारे हाथों में किताबें लेकर घूमना , यूरोपीय बोधिक कार्य  के बिखरे टुकड़ों को दोहराना और व्यक्ति की यह पूरी मेहनत तीस  रु. की क्लर्क की नोकरी  पाने के लिए या ज्यादा से ज्यादा वकील बनने के लिए है -यह है युवा भारत की महत्वाकांक्षा की सीमा !
   फ़रवरी  1897 में भारत वापस आने पर जब द हिन्दू समाचारपत्र के संवादाता ने स्वामीजी से प्रश्न किया ," क्या आपकी यह इच्छा है की भारत जापान की तरह बन जाए ?"तो स्वामीजी ने इसका सुस्पष्ट   उत्तर दिया ," निश्चित रूप से  नहीं !" उन्होंने कहा ," भारत को वही रहना चाहिए जो वो है ! भारत जापान या कोई और राष्ट्र जैसा कैसे बन सकता है ? हर राष्ट्र में संगीत के सामान एक मुख्य तान होती है , एक मूल विषय होता है , जिसके आधार पर बाकी सभी रूपांतरित होते हैं ! हर राष्ट्र का एक मूल विषय होता है और बाकी सब कुछ दूसरे स्थान पर होता है ! भारत का मूल विषय धर्म है ! समाज सुधार और शेष सब कुछ द्वितीयक है इसीलिए भारत जापान की तरह नहीं हो सकता !कहते हैं की जब ह्रदय टूट जाता है तब विचारों का प्रवाह बहता है !भारत का भी ह्रदय टूटना चाहिए और तब ही आध्यात्म  का प्रवाह बहेगा !भारत भारत है , हम जापानियों की तरह नहीं हैं हम हिन्दू हैं ! " 

पश्चिम की प्रथम यात्रा ->
  चीन , कनाडा होते हुए वह जुलाई ,1893  को शिकागो पहुंचे पर उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई की  किसी प्रमाणित संगठन द्वारा दिए गए प्रमाण  पत्र के बिना किसी को भी  प्रतिनिधि नहीं माना जायेगा !शिकागो में  स्वामीजी हार्वर्ड विश्वविद्यालय  के प्रोफ़ेसर जोन हेनरी राइट के संपर्क में आये ! स्वामीजी को हार्वर्ड में बुलाने और यह जानने के पश्चात की उनके पास प्रमाण पत्र नहीं है , प्रो. हेनरी राइट ने कहा ," आपसे प्रमाण पत्र माँगना वैसा ही है जैसे सूर्य से यह पूछना की क्या उसे आकाश में चमकने का अधिकार है !" तब राइट ने प्रतिनिधियों के प्रभारी अध्यक्ष को यह पत्र लिखा की " यह व्यक्ति हमारे सभी विद्वान् प्रोफेसरों(एक साथ) से ज्यादा विद्वान्  है !" 

विश्व धर्म संसद ->
   विश्व धर्म संसद का शुभारम्भ  11- sitamber -1893  को शिकागो के आर्ट इंस्टिट्यूट  में हुआ !इस दिन व ने अपना लघु व्याख्यान दिया और भारत व हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व किया !उन्होंने सबसे पहले ज्ञान की देवी सरस्वती के आगे सिर झुकाया और अपना भाषण इन शब्दों के साथ शुरू किया ," अमेरिका के बहेनों और भाइयों !" यह सुनते ही 7000 श्रोताओं ने दो मिनट तक खड़े होकर उत्साहपूर्वक उनकी जयजयकार की ! अपने एतिहासिक  भाषण में स्वामी जी ने कहा ,
  " जैसे विभिन्न स्त्रोतों से आने वाली नदियाँ अपना जल सागर में मिला देती हैं उसी तरह , हे प्रभु , मनुष्य विभिन्न प्रवृतियों के कारण जो  अनेक मार्ग अपनाता है ,टेढ़े-मेढे या सीधे ,  वह सब आपकी ओर ही जाते हैं !"
     लघु व्याख्यान होने के बावजूद इसने संसद के उद्देश्य और उसकी सार्वभौमिक भावना को पूर्णत: अभिव्यक्त  कर दिया !
  संसद के अध्यक्ष  डा. बेरो  ने कहा ," भारत- धर्मों की माँ जिसका प्रतिनिधित्व विवेकानंद  ने किया ,एक भगवा-संन्यासी ,जिन्होंने  अपने श्रोताओं पर  सर्वाधिक आश्चर्यजनक  प्रभाव डाला ! " उन्होंने वहाँ की प्रेस का व्यापक ध्यान आकर्षित किया , जिसने उन्हें "  भारत का तूफानी संन्यासी  " की उपाधि दी ! न्यूयोर्क क्रिटिक (New York Critique ) ने लिखा " वह देवीय अधिकार से ही वक्ता हैं और उनका ओजस्वी ,ज्ञानपूर्ण  चेहरा अपने  पीले और नारंगी मनोहर समायोजन में , उन सच्चे  शब्दों से मुश्किल से  कुछ ही कम  मनभावना है  , जिन्हें वह अत्यधिक शानदार ,लय-बध  रूप से उच्चारित करते हैं! "न्यूयोर्क हेराल्ड ( New York Herald ) के अनुसार ," विवेकानंद निस्संदेह  धर्म संसद की महानतम विभूति  हैं ! उन्हें सुनने के बाद हमें लगता है की ऐसे ज्ञानी राष्ट्र में मिशनरियां  भेजना  कितनी बड़ी मूर्खता है ! " अमेरिकी अख़बारों ने उन्हें " धर्म-संसद की महानतम  विभूति" और "धर्म-संसद में सर्वाधिक लोकप्रिय व प्रभावशाली व्यक्ति " बताया !
   27-सितम्बर-1893 को विश्व धर्म संसद  का समापन हो गया !स्वामीजी ने संसद में  अनेक बार हिंदुत्व और बुद्धिस्म से सम्बंधित विषयों पर व्याख्यान दिया !उनके सभी भाषणों का केन्द्रीय तत्व था -सार्वभोमिकता और धार्मिक सहिष्दुता पर जोर!  

अमेरिका और इंग्लॅण्ड में यात्राएं  ->
   विश्व धर्म संसद  की समाप्ति के पश्चात विवेकानंद जी ने लगभग दो वर्ष तक पूर्वी और केन्द्रीय अमेरिका के विभिन्न भागों में व्याख्यान दिए, विशेषकर शिकागो, देत्रोइत (detroit),बोस्टन और न्यूयोर्क  में !इस लगातार परिश्रम के कारण  1895 की वसंत ऋतू  तक वह थक चुके थे व उनका स्वास्थ्य भी खराब हो गया था ! अपनी व्याख्यान यात्राओं को विराम देते हुए  उन्होंने वेदान्त और योग की व्यक्तिगत और निशुल्क कक्षाएं  देना शुरू कर दिया ! बाद में उन्होंने  न्यूयोर्क की वेदान्त सभा की स्थापना की !
   अपनी प्रथम अमेरिकी यात्रा के दोरान स्वामी विवेकानंद  ने 1895 और 1896 में इंग्लॅण्ड की दो यात्राएं की !यहाँ भी उनके भाषण सफल रहे और उनकी भेंट एक आयरिश महिला -मिस मारग्रेट  नोबल से हुई , जो बाद में बहेन  निवेदिता बन गयीं !अपनी दूसरी यात्रा के दोरान मई,1896 में, पिमलिको में निवास के दोरान उनकी मुलाक़ात मेक्स  मुल्लर से हुई ,जिन्होंने पश्चिम में रामकृष्ण जी की प्रथम जीवनी लिखी !
   उन्हें दो प्रमुख विश्वविध्यालयों - हार्वर्ड  विश्वविध्यालय और कोलम्बिया विश्वविध्यालय ,से पूर्वी दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक पद हेतु अकादमिक प्रस्ताव भी मिले किन्तु उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया की एक घुमंतू सन्यासी होते हुए वह इस तरह के कार्य हेतु एक स्थान पर नहीं रह सकते !
      इस दोरान उन्हें अनेक सच्चे अनुयायी मिले जिन्होंने अद्वैत आश्रम की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया  और जे.जे.गुडविन उनके स्टेनोग्राफेर  बन गए जिन्होंने स्वामीजी की शिक्षाओं  और भाषणों को रिकार्ड किया ! उनके अनुयायी -एक फ़्रांसिसी महिला मैडम  लूइस स्वामी अभयानंद बन गयीं और मिस्टर लेओने लेंड्सबर्ग  स्वामी कृपानंद बन गए !उनके अनेक अनुयायी उनकी प्रेरणा से ब्रम्हचारी बन गए !
  विवेकानंद जी  के विचारों ने अनेक विद्वानों  और महान विचारकों को भी प्रभावित किया !
      विदेश में होते हुए भी स्वामीजी ने पश्चिम से ही भारत में अपने कार्य को चलायेमान रखा! वह निरंतर रूप से अपने भारतीय अनुयायियों और साथी भिछुओं को पत्र लिखते रहे और धन भी भेजते रहे! वह लगातार अपने प्रमुख शिष्यों को एक महान उद्देश्य के लिए प्रेरित करते रहे  ! ऐसे ही एक पत्र में उन्होंने स्वामी अखंडानंद को लिखा ," खेतरी  के निर्धन और निचले लोगों के बीच द्वार-द्वार जाओ और उन्हें धर्म की शिक्षा दो ! साथ ही उन्हें भूगोल और ऐसे ही विषयों की भी शिक्षा दो !  खाली बैठकर और राजसी भोजन करके "रामकृष्ण, ओ प्रभु !" कहने का कोई लाभ नहीं है जब तक की तुम गरीबों का कुछ भला नहीं करते !" अंततः 1895  में, स्वामीजी  द्वारा भेजे  गए धन से , मद्रास में ब्रम्हवादीन नामक पत्र का प्रारंभ हुआ ,जिसका उद्देश्य था वेदान्त का प्रसार !बाद में ब्रम्हवादीन में स्वामीजी द्वारा अनुवादित 'द इमिटेशन  ऑफ़ क्राइस्ट ' के छ  पाठ प्रकाशित हुए !
     पश्चिम में कुछ वर्ष के प्रवास के बाद स्वामी विवेकानंद जी 16 -दिस.-1896  को अपने कुछ अनुयायियों के साथ इंग्लॅण्ड से भारत की ओर  चले ! इस यात्रा में वह फ्रांस और इटली भी गए और लिओनार्दो डा विन्सी की कृति ' द लास्ट सप्पर'  भी देखी ! बाद में मिस मुलर और सिस्टर निवेदिता भी भारत आ गयीं !सिस्टर निवेदिता ने अपना पूरा जीवन भारतीय महिलाओं को शिक्षित करने में और भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति में लगा दिया !              
वापस भारत में ->

     स्वामीजी 15-जन.- 1897 को कोलम्बो पहुंचे जहां उनका चित्ताकर्षक स्वागत हुआ !यहाँ उन्होंने पूर्व में अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया -"भारत-एक पवित्र भूमि "(india-the holy land ) !यहाँ से लेकर कलकत्ता तक की उनकी यात्रा विजयोल्लास से परिपूर्ण रही ! वह कोलम्बो से पंबन, रामेश्वरम,रमनद, मदुरे ,कुम्बकोनाम और मद्रास गए और अपने ओजस्वी व्याख्यान दिए !जनता और राजाओं ने उनका उत्साहपूर्वक स्वागत किया ! पंबन में जुलूस के दोरान रमनद के राजा ने स्वयं स्वामीजी का सामान उठाया !मद्रास के मार्ग में , अनेक स्थानों पर जहां रेलगाड़ी नहीं रूकती थी वहाँ लोग पटरियों पर बैठ जाते और स्वामीजी को सुनने के बाद ही रेलगाड़ी को आगे जाने देते थे !मद्रास से कलकत्ता तक उनकी यात्राएं और अल्मोड़ा तक उनके व्याख्यान जारी रखे ! 
        जहां  पश्चिम में वह भारत की  महान आध्यात्मिक  की बात करते थे ,वहीँ भारत में उनके भाषणों में मुख्य विषय था -जन साधारण  की उन्नति,जाति व्यवस्था का अंत ,विज्ञान की शिक्षा को प्रोत्साहन ,देश का ओद्योगिकीकरण ,निर्धनता की समाप्ति और ओप्निवेशिक शासन की समाप्ति !यह व्याख्यान " लेक्चेर्स फ्रॉम कोलम्बो टू अल्मोड़ा " नाम से प्रकाशित हुए !उनके भाषणों का अनेक भारतीय नेताओं ,जैसे महात्मा गाँधी, बिपिन चन्द्र पाल , बाल गंगाधर तिलक ,आदि  पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा !
रामकृष्ण   मठ और मिशन की स्थापना ->

   कलकत्ता   में 1-मई-1897 को विवेकानंद जी  ने धर्म-प्रचार के लिए " रामकृष्ण मठ " और समाज सेवा के लिए "रामकृष्ण मिशन " की स्थापना की ! यह एक संगठित  सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन की शुरुआत थी जिसका उद्देश्य था शेक्षणिक, सांस्कृतिक, चिकित्सकीय  और राहत कार्यों द्वारा जन-साधारण की सहायता करना !रामकृष्ण मिशन का आदर्श है -"कर्म-योग" ! भारत में स्वामीजी ने दो मठों की स्थापना की- एक कलकत्ता के पास बेलूर में, जो रामकृष्ण   मठ और मिशन  का "मुख्यालय" बना और दूसरा हिमालय में अल्मोड़ा के पास मायावती में , जिसे "अद्वैत आश्रम" कहा गया ! बाद में एक तीसरा मठ  मद्रास में स्थापित हुआ !दो अखबार भी शुरू किये गए - अंग्रेजी में "प्रबुद्ध भारत " और बांगला में "उदबोधन " !इसी वर्ष स्वामी अखंडानंद ने मुर्शिदाबाद जिले में अकाल राहत कार्य शुरू किया ! 
   जमशेदजी टाटा ने स्वामीजी से प्रभावित होकर "रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस" की स्थापना की ! उन्होंने पत्र लिखकर  स्वामीजी से इसका  प्रमुख बनने का अनुरोध किया लेकिन स्वामीजी ने यह कहकर असमर्थता जताई की यह उनके आध्यात्मिक रुचि के विरुद्ध है !
     बाद में वह आर्य समाजियों और सनातनवादियों  के बीच  मेल कराने के लिए  पश्चिमी पंजाब  गए, जहां आर्य समाजी हिंदुत्व की पुनः व्याख्या के पक्ष में थे वहीँ सनातनवादी  पारंपरिक या कट्टरपंथी हिंदुत्व  के पक्ष में थे और उसमें कोई बदलाव नहीं होने देना चाहते थे  !रावलपिंडी में उन्होंने आर्य समाज और मुस्लिमों के बीच वैर-भाव  को मिटाने के उपाय सुझाये !उनकी लाहौर यात्रा उनके  प्रसिद्ध भाषणों के कारण अविस्मरणीय बन गयी और उनकी भेंट गणित  के प्रतिभाशाली प्रोफ़ेसर राम तीर्र्थ गोस्वामी से हुई ,जो बाद मठ में शामिल हो गए और स्वामी राम तीर्थ बन गए !इन्होने भी भारत और अमेरिका में वेदान्त पर अनेक व्याख्यान दिए !  स्वामीजी दिल्ली और खेतरी सहित अन्य स्थानों पर भी गए और  जन.-1896 को वापस कलकत्ता पहुंचे ! यहाँ कुछ माह रहकर उन्होंने मठ के कार्यों को समेकित किया तथा शिष्यों को प्रशिक्षण दिया ! इसी समय उन्होंने अपनी प्रसिद्ध आरती " खंडन भव बंधन ... "  की रचना की !

पश्चिम की दूसरी यात्रा ->

   अपने गिरते स्वास्थ्य के बावजूद वह जून-1899  में एक बार फिर पश्चिम की  यात्रा पर गए !उनके साथ बहेन निवेदिता और स्वामी तुर्यानंद भी गए !इंग्लॅण्ड में कुछ समय बिताने के बाद वह अमेरिका पहुंचे और सन फ्रांसिस्को व न्यूयोर्क  में वेदान्त सभाओं की स्थापना की और कलिफोर्निया में शान्ति आश्रम की भी स्थापना की !बाद में उन्होंने सन 1900 में , पेरिस  में धर्म संसद में भाग लिया ! उनके  पेरिस में दिए व्याख्यान भी अविस्मरणीय रहे ! पेरिस से वह 9-दिस.-1900 को  बेलूर मठ वापस आ गए !

अंतिम वर्ष ->

      कुछ दिन मायावती के अद्वैत आश्रम  में बिताने के बाद वह अंतिम समय तक बेलूर मठ में ही रहे  !यहीं से वह रामकृष्ण मठ और मिशन को निर्देशित करते रहे और अमेरिका और इंग्लॅण्ड के कार्य को भी दिशा देते रहे !इस दोरान हजारों लोग उनसे मिलने आये जिनमें ग्वालिअर के महाराज और तिलक जैसे भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के अनेक निष्ठावान समर्थक भी थे ! दिसम्बर 1901 में उन्हें जापान में होने वाली धर्म संसद का निमंत्रण मिला किन्तु अपने खराब स्वास्थ्य के कारण वह उसमें भाग नहीं ले सके ! अपने अंतिम दिनों में उन्होंने बोधगया और वाराणसी की तीर्थयात्राएं की !
  उनकी लगातार यात्राओं , व्याख्यानों के कठोर कार्यक्रमों , व्यक्तिगत परिचर्चाओं  और पत्राचार ने उनके स्वास्थ्य पर  बहुत बुरा प्रभाव डाला और वह अस्थमा , डायबिटीज व अन्य शारीरिक बीमारियों से ग्रसित हो गए !अपनी म्रत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्हें तल्लीनता के साथ पंचांग पढ़ते हुए देखा गया और म्रत्यु से तीन दिन पूर्व उन्होंने अपनी चिता का स्थान भी निर्धारित कर दिया था ! उन्हें अपनी म्रत्यु का पूर्वाभास हो चुका था और उन्होंने अनेक लोगों से यह उल्लेख किया था की वह चालीस वर्ष की आयु  पूर्ण नहीं करेंगे,जो की सत्य हुआ !
  अपनी  म्रत्यु के दिन, 4-जुलाई-1902 को ,  उन्होंने बेलूर मठ में प्रात:-काल अपने कुछ शिष्यों को शुक्ल-यजुर्वेद की शिक्षा दी , स्वामी प्रेमानंद के साथ भ्रमण किया और उन्हें मठ के भविष्य से सम्बंधित दिशा-निर्देश दिए ! रात्री में ध्यानअवस्था के दोरान ही उन्होंने अपनी नश्वर  देह त्याग दी और मुक्त हो गए ,इसे उनके शिष्यों द्वारा महासमाधि कहा जाता है ! उनके शिष्यों के अनुसार  उनके नेत्रों और उनकी नाक व  मुख के आसपास  हल्का-सा रक्त लगा था ! डाक्टरों के अनुसार ऐसा मष्तिष्क की रक्त-वाहिनी के फटने के कारण हुआ होगा पर वह इसका ठीक-ठीक कारण नहीं बता पाए , वहीँ स्वामीजी  के शिष्यों का मानना है की महासमाधि की प्राप्ति  पर उनके मष्तिष्क में स्थित ब्रम्ह्रंध्र में छिद्र होने से ही ऐसा  हुआ !  इस प्रकार यह महान आत्मा पूरे विश्व में अपना प्रकाश फेलाकर  महासमाधि को प्राप्त हुई !

नोट->"महापुरुषों की जीवनियाँ केवल पढने के लिए नहीं बल्कि अपने जीवन में उतारने के लिए होती हैं ! महान आत्माएं अपना जीवन इसीलिए ही बलिदान करती हैं ताकि हम जैसे लोग उनसे प्रेरणा लें !" 

  

विश्व धर्म संसद में दिए गए भाषण के लिए ->

2 comments:

Vishwapriya said...

एक प्रश्न है आप सब से :- क्या स्वामी विवेकानंद जी ने इस देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था ??? विवेकानंद जी १८६३ से लेकर १९०२ तक इस पावन धरती पर रहे | क्या किया उन्होंने इस देश के स्वतंत्रता आंदोलन में >>>??? यदि कोई भूमिका निभाई तो क्या, कब, कैसी, कहाँ ? कुछ उदाहरण दें | पतें बताइए | कोई उल्लेख है क्या स्वामी विवेकानंद साहित्य में ??? यदि नहीं तो क्यों नहीं ??? और यदि कोई भूमिका नहीं निभाई तो फिर क्यों हम सब और हमारे शिक्षक विवेकानंद का चित्र १५ अगस्त और २६ जनवरी के दिन अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ लगाते हैं ???? क्यों ??? कोई उत्तर ??? मैं ये सब प्रमाण के साथ लिख रहा हूँ | यदि आपको बुरा लगता है तो कृपा कर मेरी बात को गलत साबित करें प्रमाण दे कर | मांसाहारी और धुम्रपानी विवेकानंद को हम अपना आदर्श क्यों माने ??

Vishwapriya said...

http://hindibhojpuri.blogspot.in/2012/04/blog-post_26.html स्वामी विवेकानंद का दूसरा पक्ष