23.1.11

महान सेनानी सुभाष चन्द्र बोस

                           महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सेनानी सुभाष  चन्द्र बोस तेजस्वी नेता ,प्रखर  वक्ता , वीर क्रन्तिकारी  और  कुशल नेत्रत्व्कर्ता  थे ! उन्होंने  भारत को स्वतंत्र कराने के लिए देश  और  विदेश में  हर संभव  प्रयास  किया  और अंत में  अपने प्राणों का बलिदान कर दिया  पर बहुत दुःख की बात है की उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला यहाँ तक की उनकी म्रत्यु का रहस्य आज भी एक रहस्य ही है ! हमारी केंद्र सरकार के लिए यह कितने शर्म की बात है वह जानबूझकर नेताजी जैसे अमर शहीद की रहस्मय म्रत्यु पर पर्दा डाले हुए है ताकि दूसरे देशों से उसके सम्बन्ध ख़राब न हों !

शुरूआती जीवन ->

      सुभाष जी का जन्म 23- जनवरी-1897 को कटक (उडीसा ) में एक संपन्न बंगाली कायस्थ  परिवार में हुआ था !उनके पिता जानकीनाथ बोस प्रतिष्ठित वकील थे और उनकी माँ प्रभावती देवी सात्विक महिला थीं ! वह अपने 14 भाई-बहनों में 9 वीं संतान थे !
        बचपन से ही उन पर स्वामी विवेकानंद के विचारों का भी बहुत प्रभाव पड़ा था और उनका हृदय अंग्रेजों के अन्याय व मानवता की दुर्दशा से द्रवित हो उठता था ! जब एक दिन किशोर सुभाष ने अखबार में पढ़ा की जाजपुर में हैजे का भीषण प्रकोप फेला है तो वह तुरंत जाजपुर जाकर रोगियों की सेवा करने में लग गए और कई महीनों तक पीड़ितों की सेवा में लगे रहे !
         उन्होंने छठी कक्षा तक की शिक्षा कटक के ही अंग्लो स्कूल (अब स्टीवर्ट स्कूल) और उसके बाद  की शिक्षा रेवनशा  कालेजिएट स्कूल ( Ravenshaw Collegiate School ) से प्राप्त की ! इसके बाद आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने कलकत्ता के प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया ! उनमें शुरू से ही राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी इसीलिए जब कॉलेज में प्रो.ओटन (Professor Oaten) ने भारत-विरोधी टीका-टिप्पणी की तो सुभाष ने उस पर हमला कर दिया पर इसके दंड स्वरुप उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया ! सुभाष राष्ट्र-प्रेमी होने के साथ-साथ तीव्र बुद्धि के भी थे और उन्होंने 1911 में मेट्रिक परीक्षा में पूरे कलकत्ता प्रान्त में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया ! 1918 में  उन्होंने प्रसिद्ध स्कोटिश चर्च कॉलेज (Scottish Church College) से दर्शन-शास्त्र में बी.ए. किया !
        उन्होंने लन्दन जाकर सिविल सेवा परीक्षा दी जिसमें उनका चोथा स्थान प्राप्त किया ! इसमें उनके उच्च अंकों के आधार पर उन्हें सिविल सेवा में स्वतः नियुक्ति मिल गयी पर तब उन्होंने यह कहते हुए आइ.सी.एस. ( Indian civil services) से त्यागपत्र दे दिया की " किसी शासन का अंत करने का सबसे अच्छा तरीका है की उससे अलग हो जाओ !" और एक बार फिर अपने देशप्रेम का परिचय दिया ! 
        इस समय भारत में सभी राष्ट्रवादी लोग जलियांवाला काण्ड(1919) और दमनात्मक रोलेक्ट एक्ट (1919)  से स्तब्ध और उग्र थे ! स्वदेश वापस आकर सुभाष ने "स्वराज समाचारपत्र " में लेख लिखे  व देशबंधु चितरंजन दास और महात्मा गाँधी की प्रेरणा से वह  भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस में शामिल हो गए और " बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी "  के प्रचार का भार अपने ऊपर ले लिया ! जब महात्मा गाँधी ने देश में असहयोग आन्दोलन की शुरुआत की तब सुभाष जी ने भी उसमें पूरा भाग लिया !  भारत में उनके राजनीतिक गुरु  चितरंजन दास थे ! जब सी.आर. दास कलकत्ता के मेयर चुने गए तब भी सुभाष ने उनके साथ कार्य किया ! सुभाष को देशबंधु ने राष्ट्रिय स्वयं सेवक दल का सेनापति बना दिया !उनकी संगठन क्षमता व कोशल से अंग्रेज सरकार घबरा गयी और उसने संगठन को गेर-कानूनी करार कर दिया और दल के कई युवकों को जेल में डाल दिया ! सुभाष को भी पकड़कर अलीपुर जेल में डाल दिया गया और उन्हें 6 महीनों की सजा हुई ! यह उनकी पहली जेल-यात्रा थी और फिर तो वह कई बार जेल गए !  1925 में भी जब राष्ट्रवादियों की धर-पकड़ हुई तब सुभाष को भी गिरफ्तार किया गया और मांडले( म्यांमार) जेल में कैद कर दिया गया , जहां उन्हें टी.बी. रोग का संक्रमण हो गया !  

राष्ट्रीय राजनीति में  प्रवेश ->
       जेल में दो साल बिताने के बाद बोस बाहर आ गए ! वह कांग्रस पार्टी के जनरल सेक्रेटरी चुने गए और जवाहरलाल नेहरु ,आदि के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में लग गए ! पर इस बार फिर  अंग्रेज सरकार ने सुभाष को नागरिक अवज्ञा (civil disobedience) के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया ! पर अंग्रेज सरकार का दमन उनके जोश और जनता में उनकी लोकप्रियता को कम नहीं कर सका और 1930 में वह कलकत्ता के मेयर चुने गए ! 1933 में सुभाष यूरोप की यात्रा पर गए और 1935 में वापस आये ! उन्होंने भारतीय छात्रों और यूरोपीय राजनेताओं , जिनमें मुसोलोनी भी था, से मुलाक़ात की !उन्होंने पार्टी संगठन का ध्यान से अवलोकन किया और साम्यवाद व फासीवाद की कार्रवाई को देखा ! उन्होंने पाया की विश्व युद्ध की चर्चा सर्वत्र है !
   
कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना गांधीजी से मतभेद और फॉरवर्ड ब्लोक की स्थापना ->

gandhiji aur subhash chandr bose 1938 mein congress ke warshik
adhiveshan ke doraan.
        1938 तक वह राष्ट्रीय स्तर के नेता बन चुके थे ! इसी वर्ष वह कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अपना नाम देने  हो गए  और 1938 में कांग्रेस के  के  अधिवेशन में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए !  उनका लक्ष्य था  -> बिनाशर्त पूर्ण स्वराज , जिसमें अंग्रेज सरकार के प्रति बल प्रयोग की भी बात थी ! यह बात महात्मा गाँधी की सोच से मेल नहीं खाती थी और महात्मा गाँधी ने सुभाष जी के 1939 में अध्यक्ष पद हेतु दोबारा  नामांकन का भी विरोध किया पर सुभाष 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में  दूसरी बार भी अध्यक्ष चुने गए , बोस स्ट्रेचर पर कांग्रेस की मीटिंग में भाग लेने गए ! गांधीजी पट्टाभि सीतारामैय्या का समर्थन कर रहे थे और उनके हारने पर गांधीजी ने कहा की पट्टाभि सीतारामैय्या की हार उनकी हार है ! इस मतभेद से  कांग्रेस पार्टी में फूट पड गयी ! सुभाष ने पार्टी में एकता बनाए रखने का प्रयास किया लेकिन गांधीजी नहीं माने और उन्होंने सुभाष को अपनी कार्यकारणी खुद ही बना लेने को कहा ! इस मतभेद से उनके और नेहरु के बीच भी दरार पड  गयी !
        1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में  उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में सुझाव दिया की - ' स्वाधीनता की राष्ट्रिय मांग एक निश्चित समय के अंदर पूरी करने के लिए ब्रिटिश सरकार के सामने रखी जाए और उस समय-सीमा में मांग पूरी न होने पर हमें सविनय अवज्ञा आन्दोलन और सत्याग्रह शुरू कर देना चाहिए ! '  पर कांग्रेस वर्किंग कोम्मित्ती के गाँधी -वादी धड़े के निरंतर  व्यवधान और विरोध के कारण आखिरकार सुभाष को अप्रैल-1939 को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा !
      कांग्रेस से अलग होकर  उन्होंने 22-जून-1939 को forward bloc की स्थापना की जिसका  प्रमुख उद्देश्य था वाम पंथ (लेफ्ट ) को मजबूत बनाना !
       सुभाष का मानना था की जब अंग्रेज द्वितीय विश्व-युद्ध में फंसे हैं तभी हमें उनकी राजनितिक अस्थिरता का फायदा  उठाना चाहिए और स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना चाहिए न की यह इंतज़ार करना चाहिए की युद्ध की समाप्ति पर अंग्रेज हमें स्वतंत्रता दे दें !( जो की गांधीजी , नेहरु ,आदि की सोच थी !)
                                                  द्वितीय-विश्व  युद्ध के शुरू होने पर उन्होंने इस बात का व्यापक विरोध किया की वायसराय  लिनलिथगो ने बिना कांग्रस नेतृत्व से सलाह किये भारत को भी युद्ध में कैसे शामिल कर लिया ! पर जब वह गांधीजी को सहमत नहीं कर पाए तो उन्होंने स्वयं ही जन -  विरोध का आयोजन किया और ब्लैक-होल घटना की याद में अंग्रेजों द्वारा बनाये गए " होल्वेल स्मारक चिह्न " को मिटा देने का आह्वाहन किया ! अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया पर सुभाष द्वारा 7 दिनों तक भूख-हड़ताल करने और जेल के बाहर जनता द्वारा भरी आन्दोलन करने के बाद सरकार को उन्हें मजबूरन छोड़ देना पड़ा पर अब उन्हें घर में ही (सी.बी.आई. द्वारा) नजरबन्द कर दिया गया !
            गांधीजी और उनके विचारों का अंतर इसी से पता चलता है की उनका मानना था की " अगर कोई तुम्हें एक थप्पड़ मरे तो तुम उसे दो थप्पड़ मारो ! "

नजरबंदी से जर्मनी तक ->
                                             इस नजरबंदी से भी उन्हें लाभ ही हुआ ! सुभाष जानते थे की चूंकि उन पर अभी दो केस विचाराधीन हैं इसीलिए युद्ध ख़त्म होने तक ब्रिटिश सरकार उन्हें देश से बाहर नहीं जाने देगी ! इस स्थिति ने उनके जर्मनी  जाने का मार्ग बनाया ! abwehr ( जर्मनी की सैन्य गुप्तचार सेवा  ) के सहयोग से वह अफगानिस्तान और रूस होते हुए जर्मनी पहुंचे ! 19-जनवरी-1941 को अंग्रेज सरकार की कठोर निगरानी  के बीच( अपने भतीजे शिशिर बोस के साथ) घर से निकले ! उन्होंने पश्तून इंश्योरेंस  एजेंट पठान "जियाउद्दीन" का वेश बनाया और कलकत्ता से वह पेशावर पहुँच गए ! वहाँ उनकी भेंट अकबर शाह , मोहम्मद शाह और भगत राम तलवार से हुई ! अपने सहियोगियों की मदद से वह काबुल होते हुए रूस पहुंचे !  उनका मानना था की अंग्रेज सरकार से पारंपरिक शत्रुता होने के कारण सोवियत रूस भारत में अंग्रेजों के खिलाफ बड़े विद्रोह का समर्थन करेगा पर मोस्को पहुँचने पर उन्हें रूस की प्रतिक्रिया बहुत निराशाजनक लगी ! उन्हें तुरंत ही मोस्को में जर्मन राजदूत को सौंप दिया गया ! जर्मन राजदूत  ने उन्हें विशेष कोरिअर विमान से बर्लिन भेज दिया ! मोस्को से वह इटली के कुलीन काउंट ओरलांडो मोजाता  (Count Orlando Mazzotta) के पासपोर्ट पर रोम होते हुए  बर्लिन पहुंचे !

        1941 में , जब अंग्रेजों को पता चला की बोस धुरी-राष्ट्रों से सहयोग की अपेक्षा कर रहे हैं तो उसने अपने एजेंटों को आदेश दिया की वह उन्हें जर्मनी पहुँचने से पहले ही रास्ते में ही उनकी हत्या कर दें ! 
           नेताजी 2 -अप्रैल-1941 को बर्लिन पहुंचे जहां उनका भरपूर स्वागत हुआ ! जर्मन सरकार के पर-राष्ट्र विभाग ने उन्हें " फ्यूहरर ऑफ़ इण्डिया"  की उपाधि दी ! जर्मनी की जनता  ने ही उन्हें "नेताजी" नाम  से  संबोधित  किया !वहाँ पहुंचकर वह अपने मिशन में लग गए ! उन्होंने धुरी-राष्ट्रों की सैनिक शक्तियों की मदद से भारत की स्वतंत्रता का प्रयास शुरू कर दिया ! उन्होंने युद्ध का मोर्चा देखा और युद्ध-विद्या की ट्रेनिंग ली तथा फील्ड मार्शल बन गए ! बर्लिन में उन्होंने "फ्री इंडिया सेण्टर " ,"आजाद हिंद रेडियो" की स्थापना की और 4500 भारतीय युद्ध-बंदियों को मिलाकर  "भारतीय सेना" (Indian Legion) का गठन किया ! यह वह युद्ध-बंदी थे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज सेना की ओर से युद्ध किया था ओर धुरी-राष्ट्रों द्वारा बंदी बना लिए गए थे !इसके सदस्यों ने हिटलर और बोस के सामने वफादारी की शपथ ली ! सुभाष  ने बर्लिन  रेडियो से  अंग्रेज विरोधी और भारत समर्थक जोशीला  भाषण  दिया  !
                  7-दिस.-1941 को जापान , जर्मनी के  साथ  विश्व  युद्ध में शामिल हो  गया  और 16-फर.-1942 को  जापान ने अंग्रेजों  के  विश्व  प्रसिद्ध  समुद्री गढ़  सिंगापूर पर  कब्ज़ा  कर लिया ! इसके बाद जापान ने मलय से म्यांमार तक  का पूरा  प्रदेश  जीत  लिया !
          नेताजी ने अपना ध्यान दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर केन्द्रित किया जहां बड़ी संख्या में भारतीय बसे थे इसीलिए यहाँ अंग्रेजी-राज के खिलाफ ओप्निवेशिक शासन विरोधी शक्ति की स्थापना की अच्छी संभावना थी !
आई.एन.ऐ का नेतृत्व और "अस्थायी सरकार " की स्थापना -> 

           इन  दिनों  भारत के  पुराने  और प्रसिद्ध  क्रन्तिकारी  रास  बिहारी  बोस  जापान में थे ! इन्हीं  रास  बिहारी  बोस  की अध्यक्षता  में बेंकाक में 14-जून  से  23-जून-1942 के  बीच  एक  सम्मलेन  हुआ  ,जिसे  "बेंकाक सम्मलेन" के नाम से जाना जाता है ! इसमें  जापान से लेकर म्यांमार तक के देशों में रहने वाले असंख्य भारतीय शामिल हुए !इस सम्मलेन में " भारतीय स्वतंत्रता लीग " की विधिवत घोषणा की गयी और सुभाष को वहाँ आने का निमंत्रण दिया गया !
             इस निमंत्रण को स्वीकार कर सुभाष 8-फ़रवरी-1943 को जर्मनी से चले और  जर्मनी से  वह उत्तमाषा अन्तेरीप (cape of good hope) होते हुए , जर्मनी और जापानी पनडुब्बियों द्वारा ,तीन महीनों की यात्रा के बाद मई-1943 को टोक्यो पहुंचे !जापान के प्रधानमन्त्री तोजो ने उनका स्वागत किया !उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया की उनका एकमात्र लक्ष्य - भारत की स्वतंत्रता है ! उन्होंने जापान की यह मांग स्वीकार कर ली की युद्ध के दोरान भारत जापान का सहयोगी रहेगा ! सुभाष ने टोक्यो रेडियो से अंग्रेजों के खिलाफ और भारत की आजादी के लिए अपना प्रथम सन्देश दिया ! इसके बाद जापान ने उन्हें सिंगापूर में अपनी सेना बनाने में मदद की !
          इस समय , सितम्बर-1942 तक कैप्टन मोहन सिंह के नेतृत्व में सिंगापुर में " आजाद हिंद फ़ौज  " का गठन भी हो चुका था (जापान द्वारा सुदूर पूर्व में पकडे गए अंग्रेज सेना के भारतीय युद्ध-बंदियों को मिलाकर), जिसका उद्देश्य था-जापान की मदद से भारत को अंग्रेज राज से स्वतंत्रता कराना ! 2- जुलाई-1943 को सुभाष सिंगापुर पहुंचे जहां  5-जुलाई-1943 को हुए सम्मलेन में रास बिहारी बोस ने संगठन की अध्यक्षता सौंप दी और स्वयं आई.एन.ऐ. के परामर्शदाता बन गए !  सुभाष में शुरू से ही अद्भुत संगठन कोशल और नेतृत्व शमता थी उन्होंने  एन.आई.ऐ. को दोबारा संगठित किया और दक्षिण-पूर्व एशिया में रहने वाली असंख्य  प्रवासी भारतीय जनसँख्या के बीच उसे भारी लोकप्रियता दिलाई ! इन प्रवासी भारतीयों ने सुभाष के आह्वाहन पर न केवल आर्थिक मदद की बल्कि भारी संख्या में वह आई.ऍन. ऐ. में भर्ती भी हुए !इस समय इसमें लगभग 40,000 सैनिक थी और इसमें " झाँसी की रानी " नाम की एक महिला रेजिमेंट  भी थी जिसकी नेता कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन सहगल थीं ! यह एशिया में अपनी तरह की पहली रेजिमेंट थी ! इससे स्पष्ट हो जाता है की उस समय भारतीयों में सुभाष किस तरह लोकप्रिय थे की उनके एक इशारे पर हजारों भारतीय पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी अपने प्राणों की आहुति देने को तत्पर थीं !
         21-अक्टूबर-1943 को सुभाष ने आजाद हिंद फ़ौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से  सिंगापुरमें " स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार " ( अर्जी हुकूमत-ए-आजाद हिंद /  Provisional Government of Free India  )  की स्थापना की व 23- अक्टूबर-1943 को अस्थायी सरकार ने "मित्र राष्ट्रों " के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी !  !वह स्वयं इस अस्थायी सरकार के प्रधानमन्त्री और सर्वोच्च सेनापति बने और अपने पद की शपथ इन शब्दों में ली ,
" मैं सुभाष चन्द्र बोस ईश्वर की पवित्र सौगंध खाकर कहता हूँ की मैं भारत और उसके ३ करोड़ वासियों की स्वतंत्रता के लिए अपनी अंतिम सांस तक युद्ध करता रहूँगा !"                                
                            इस सरकार की स्थिति का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं की  इटली,  आयरलैंड ,  जापान , चीन ,  जर्मनी ,जैसे संसार के 9 देशों ने इस अस्थायी सरकार को मान्यता दी थी और हाल की रिसर्चों के आधार पर पता चला है की इसे सोवियत रूस ने भी मान्यता दी थी ! इस अस्थायी सरकार ने 5-6 नवम्बर-1943 को टोक्यो में हुए " ग्रेटर ईस्ट एशिया कोंफ्रेंस " ( या टोक्यो  कोंफ्रेंस ) में ओब्जर्वेर की हेसियत से भाग लिया ! 
                 7-जनवरी-1944 को नेताजी ने अस्थायी सरकार का मुख्यालय रंगून स्थानांतरित कर दिया !5-अप्रैल-1944 को " आजाद हिंद बैंक " का उदघाटन रंगून में हुआ ! इस अस्थायी सरकार की अपनी मुद्रा ,पोस्टेज स्टाम्प ,कोर्ट और सिविल कोड भी था !
             जापान द्वारा अंडमान -निकोबार द्वीपों  पर अधिकार करने के एक वर्ष पश्चात  जापान ने  8-नवम्बर-1943 को  अंदमान  और निकोबार द्वीप समूहों को  नेताजी  की इस अस्थायी सरकार को सौंप दिया ! ले. कर्नल ऐ.डी. लोंगानाथन को यहाँ का आजाद हिंद गवर्नर बनाया गया !मेजर जर्नल  लोंगानाथन प्रथम विश्व युद्ध के दोरान ब्रिटिश भारतीय सेना में भारतीय डॉक्टर थे ! द्वितीय विश्व युद्ध के दोरान सिंगापूर के पतन के पश्चात वह सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में आई.एन.ऐ में भर्ती हो गए थे !1943 के अंत में नेताजी स्वयं इन द्वीपों में आये ! अंडमान द्वीप का नाम " शहीद द्वीप " और निकोबार द्वीप का नाम " स्वराज द्वीप" रखा गया तथा स्वतंत्र भारत का झंडा यहाँ फेहराया गया !  
             फिर भी , इन द्वीपों के प्रशासन पर जापानी नोसेना का महत्वपूर्ण नियंत्रण बना रहा और नेताजी की इन द्वीपों की एकमात्र यात्रा के दोरान जापानी अधिकारीयों द्वारा उन्हें स्थानीय जनता से दूर रखा गया ! द्वीपवासियों ने उन्हें अपनी पीड़ा बताने की बहुत कोशिश की पर वे सफल न हो सके ! इस अधूरे प्रशासनिक नियंत्रण से क्रुद्ध होकर ले. कर्नल लोंगानाथन ने अपना पद त्याग दिया और रंगून में स्थित सरकार के हेड क्वार्टर में वापस पहुँच गए !
       आई.एन.ऐ. की प्रथम जिम्मेदारी थी पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर सीमा पर जापानी अभियान में साथ देना ! आई.एन.ऐ. की स्पेशल फोर्सिस ने , आंग सन ( म्यांमार की नेता "अंग-सान-सू-की" के पिता )और बा माव द्वारा संगठित " बर्मीज नॅशनल आर्मी " के साथ अराकान और कोहिमा व इम्फाल में शत्रु -सेना के विरुद्ध अभियान में बड़े पैमाने पर योगदान दिया ! उत्तर-पूर्व में मणिपुर के मोइरंग क्षेत्र में , भारतीय मुख्य-भूमि पर, भारतीय-तिरंगा पहली बार फेहराया गया! 
     इस सेना ने तामू,कोहिया ,पालेल,आदि स्थानों पर कब्ज़ा कर लिया और इम्फाल को घेर लिया पर वर्षा शुरू हो जाने से जापान की हवाई सहायता बंद हो गयी अत: सेना को पीछे लौटना पड़ा और उसे भारी नुक्सान हुआ ! जापान, बर्मा और आई.एन.ऐ की गाँधी और नेहरु ब्रिगेड ने ओपरेशन  U-GO के अधीन  कोहिमा और इम्फाल के नगरों की घेराबंदी की पर कोमन्वेल्थ शक्तियों से उन्हें जीत नहीं सके ! 12- अक्टूबर -1944 तक जापानियों और  को भारत से पूरी तरह हट जाना पड़ा ! जापान की इस हार के साथ ही अस्थायी सरकार का भारत की मुख्य भूमि पर बेस बनाने का सपना भी टूट गया !  
             नेताजी को उम्मीद थी की जब ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सैनिकों को यह पता चलेगा की आई.एन.ऐ के सैनिक ब्रिटिश भारत पर बाहर से हमला कर रहे हैं , तो वह भी बड़ी संख्या में ब्रिटिश सेना को छोड़ देंगे ! पर दुर्भाग्य से , पर्याप्त पैमाने पर ऐसा नहीं हो सका ! इसके बजाय जब युद्ध में  जापान की स्थिति बदतर हुई तो आई.एन.ऐ के सैनिकों ने उससे अलग होना शुरू कर दिया ! इसी समय सेना को दी जाने वाली जापान की आर्थिक मदद भी घट गयी !  
      आई.एन.ऐ को जापानी सेना के साथ पीछे लौटना पड़ा परन्तु  बर्मा के तहत बर्मा की सुरक्षा के प्रति भी प्रतिबद्ध थी बर्मा समरभूमि में ब्रिटिश भारतीय सेना से निर्णायक युद्ध लड़ने पड़े ! रंगून के हाथ से निकलने से अस्थायी सरकार को बहुत बड़ा धक्का लगा और अस्थायी सरकार भंग हो गयी ! ले. कर्नल ऐ.डी. लोंगानाथन के नेतृत्व में आई.एन.ऐ के बहुत बड़े हिस्से ने ब्रिटिश भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था ऐसे में बची हुई सेना बोस के साथ मलय की ओर प्रस्थान किया !
                 अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए उन्होंने सेना का मनोबल बनाये रखा ! 4-जुलाई-1944 को बर्मा में आई.एन.ऐ. की रैली को संबोधित करते हुए नेताजी ने अपना सुप्रसिद्ध और जोशीला  नारा दिया " तुम मुझे खून दो मैं तुन्हें आजादी दूंगा !" और  भारत की जनता से अपील की की वह ब्रिटिश राज को ख़त्म करने में उनकी मदद करे !  
          6-जुलाई- 1944 को सिंगापूर में आजाद हिंद रेडियो से दिए गए अपने सन्देश में नेताजी ने ही महात्मा गाँधी को पहली बार " राष्ट्र पिता " कहा था ! उनके अन्य प्रसिद्ध नारे थे " दिल्ली चलो " और " जय हिंद " !
        7-मई-1945 को जर्मनी ने आत्मसमर्पण कर दिया और 6 व 9 अगस्त-1945 को हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमों का हमला होने के साथ ही जापान ने भी हार मान ली !
      नेताजी को  जापान की हार का अंदेशा था अत: उन्होंने जापान द्वारा रूस से सम्बन्ध स्थापित करना चाहा परन्तु जापानियों ने उनकी मदद नहीं की ! उनका मानना था की दिल्ली का रास्ता टोक्यो होकर नहीं मोस्को होकर जाता है !

 कथित म्रत्यु->
                                      कहा जाता है की जब नेताजी टोक्यो जा रहे थे तब 18 -अगस्त-1945  में ताइपेइ (ताइवान की राजधानी ) में , वह जिस जापानी विमान से जा रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया और इस  हादसे में नेताजी बुरी तरह घायल हुए और एक स्थानीय अस्पताल में 4 घंटे बाद उनकी म्रत्यु हो गयी ! वहीँ उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया ! इस घटना का आधार कैप्टन योशिदा तेनेयोशी (Captain Yoshida Taneyoshi) की गवाही मानी जाती है , जो की एक ब्रिटिश जासूस ( एजेंट 1189)  था !
   शव न मिलने के कारण उनके जीवित होने को लेकर कई तरह के अनुमान लगाये जाते हैं !
एक अनुमान के मुताबिक नेताजी की म्रत्यु विमान हादसे में न होकर , बाद में साइबेरिया में रूसी कैद के दोरान हुई !

भारत सरकार की संदेहास्पद उदासीनता  ->
                                                                                           इस मामले की जांच के लिए भारत सरकार द्वारा कई कमेटियां बनायीं गयीं ! मई-1946 को भारत सरकार ने नेताजी की कथित म्रत्यु की जांच करने के लिए चार सदस्यीय " शाह नवाज कमिटी " को जापान भेजा गया ! परन्तु , तब भारत सरकार ने ,  ताइवान सरकार से अपने राजनेतिक संबंधों के अभाव का हवाला देते हुए , ताइवान सरकार से जांच में सहयोग नहीं लिया !
    परन्तु , इसके बाद 1999 में जस्टिस मुखर्जी की अध्यक्षता में बनाये गए "मुखर्जी आयोग  " ने इस मामले की 1999 से 2005 तक जांच की !  आयोग ने ताइवान सरकार से संपर्क किया और एक महत्वपूर्ण खुलासा करते हुए बताया की 18 -अगस्त-1945   को नेताजी को ले जाने वाला विमान ताइपेइ में दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ था , यहाँ तक की उस दिन तो ताइपेइ में कोई भी विमान दुर्घटना नहीं हुई थी !ताइवान सरकार के  इस दावे की पुष्टि  मुखर्जी आयोग  को मिली "  U.S. Department of State" की रिपोर्ट भी करती है !
     
     पर यह कितनी बड़ी शर्म और संदेह की बात है की जब 8-नवम्बर- 2005    को आयोग ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी और 17-मई- 2006 को जाकर यह सदन में रखी गयी , इसमें कहा  गया था की नेताजी की म्रत्यु विमान हादसे में नहीं हुई है और इस आधार पर टोक्यो (जापान) के रंकोजी मंदिर में रखी गयी अस्थियाँ भी उनकी नहीं हैं ! पर तत्कालीन यू.पी.ऐ. सरकार ने बिना कोई कारण बताये मुखर्जी आयोग   की रिपोर्ट को अस्वीकृत (reject) कर दिया ! 

        केंद्र  सरकार के पास ऐसे अनेक  दस्तावेज हैं जो नेताजी की रहस्यमय म्रत्यु और उनके लापता होने के राज से पर्दा उठा सकते हैं पर केंद्र सरकार उनका खुलासा नहीं करना चाहती क्योंकि उसका कहना है की ऐसा करने से भारत के अन्य देशों के साथ सम्बन्ध ख़राब हो सकते हैं !

     इसी तरह 1992 में नेताजी को मरणोपरांत दिया गया  सम्मान " भारत रत्न " भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर वापस ले लिया गया ! यह निर्णय  ने सुप्रीम कोर्ट  एक जनहित याचिका के सम्बन्ध में दिया था ! 
    हाँ, सरकार ने इतना जरूर किया है की संसद भवन में उनकी एक तस्वीर टांगी गयी है , पश्चिम बंगाल की विधान सभा के सामने उनकी मूर्ती लगाईं है और दम-दम एयरपोर्ट  (कलकत्ता ) का नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस इंटर्नेशनल एयरपोर्ट  कर दिया !

 गुमनामी बाबा ->
                                        कई लोगों का मानना है की 1985 तक फैजाबाद (यू.पी.) के राम भवन में रहने वाले हिन्दू सन्यासी " भगवानजी " या " गुमनामी बाबा" वास्तव में सुभाष चन्द्र बोस ही थे ! लगभग चार अवसरों पर उन्होंने स्वयं यह कहा था की वह नेताजी ही हैं ! उनकी म्रत्यु के पश्चात कोर्ट के आदेश पर उनकी चीजों को कस्टडी में ले लिया गया ! बाद में ,मुखर्जी आयोग  ने इनकी जांच की परन्तु किसी पक्के सबूत के अभाव में इस दावे को ख़ारिज कर दिया ! हालांकि , " हिन्दुस्तान टाइम्स " द्वारा की गयी स्वतंत्र जांच में यह संभावना व्यक्त की गयी की संभवत: वह नेताजी ही थे ! कुछ लोगों का मानना है की गुमनामी बाबा की म्रत्यु 16-सितम्बर-1985 को हुई थी पर कुछ ऐसा नहीं मानते हैं !
               गुमनामी बाबा की कहानी उनकी म्रत्यु के बाद सामने आई थी ! कहा जाता है की उनका अंतिम संस्कार सरयू नदी के किनारे  , रात के अँधेरे में  केवल एक मोटरसायकल की हेडलाईट की रोशनी में , कर दिया गया था और उनकी पहचान छुपाने के लिए तेज़ाब डालकर उनका चेहरा भी ख़राब कर दिया गया था ! उनके अंतिम संस्कार के स्थान पर एक स्मारक बना है जहां फैजाबाद के बंगाली लोग आज भी उनके जन्मदिन पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं  ! हालाँकि " भगवानजी " का जीवन और कार्य आज भी रहस्य ही हैं ! 

   जस्टिस मुखर्जी का मत ->
                           जस्टिस मनोज कुमार मुखर्जी ने अपनी रिपोर्ट में इस सवाल पर की ' फैजाबाद के गुमनामी बाबा नेताजी थे या नहीं ' जवाब दिया था की ' जवाब देना जरूरी नहीं है !' क्योंकि कोई पक्के सबूत नहीं थे लेकिन एक डाक्यूमेन्टरी निर्माण के दोरान उन्होंने माना की उनके अनुसार भगवानजी ही " गुमनामी बाबा " थे ! इस रहस्योद्घाटन से इस सच्चाई को बल मिलता है की नेताजी 1945 के विमान हादसे में नहीं मारे गए थे बल्कि भारत में ही थे !
  इतने सबूतों के बाद भी भारत सरकार की चुप्पी पर क्या कहा जा सकता है ?

व्यक्तिगत जीवन ->
  नेताजी ने अपनी ऑस्ट्रियन सेक्रेटरी एमिली से 1937 में विवाह किया था और उन दोनों की एक पुत्री हुई - अनीता बोस , जो की औग्स्बर्ग विश्वविध्यालय में अर्थशास्त्री हैं ! 
              नेताजी का मानना था अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में भगवद गीता प्रेरणा का महान स्त्रोत है! वह स्वयं को समाजवादी कहते थे और उनका मानना था की भारत में समाजवाद का जन्म स्वामी विवेकानंद  जी के विचारों से ही हुआ है !
     23-अगस्त-2007 को जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे अपनी भारत यात्रा के दोरान सुभाष चन्द्र बोस मेमोरिअल हॉल (कलकत्ता) गए और उन्होंने नेताजी के परिवार से कहा , " जापानी बोस जी की ब्रिटिश राज के दोरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने की अदम्य इच्छा से अत्यधिक द्रवित हैं और जापान में नेताजी बहुत ही सम्मानित नाम हैं !" 

लाल किले पर नेताजी की कुर्सी ->
  5-अप्रैल-1944 को रंगून में " आजाद हिंद बैंक " के उदघाटन के अवसर पर नेताजी ने जिस कुर्सी का प्रयोग किया था वही आज हम  लाल किले पर रखी देखते हैं ! उदघाटन के बाद यह कुर्सी नेताजी के निवास स्थान (51, University Avenue, Rangoon) पर रख दी गयी ,जहाँ आजाद हिंद का ओफिस भी था !बाद में अंग्रेजों द्वारा रंगून पर कब्ज़ा कर लिया गया ! रंगून छोड़ते वक्त अंग्रेजों ने यह कुर्सी रंगून के मशहूर व्यवसायी ऐ.टी.आहूजा को सौंप दी ! भारत सरकार को आधिकारिक रूप से यह कुर्सी जनवरी-1979 को मिली ! 7-जुलाई-1981 को इसे लाल किले पर स्थापित कर दिया गया !  
नोट->"महापुरुषों की जीवनियाँ केवल पढने के लिए नहीं बल्कि अपने जीवन में उतारने के लिए होती हैं ! महान आत्माएं अपना जीवन इसीलिए ही बलिदान करती हैं ताकि हम जैसे लोग उनसे प्रेरणा लें !" 


Notes
  1.  James, L (1997) Raj, the Making and Unmaking of British India, Abacus, London 
  2.  Hauner, M (1981) India in Axis Strategy: Germany, Japan, and Indian Nationalists in the Second World War, Klett-Cotta, Stuttgart 
  3. ^ No crash at Taipei that killed Netaji: Taiwan govt. Outlook India
  4. ^ Netaji case: US backs Taiwan govt. Times of India. 19 Sep, 2005
  5. ^ Hindustantimes.com - the name India trusts for news at www.hindustantimes.com
  6. ^ 'Netaji did not die in a plane crash'
  7. ^ HindustanTimes.com Exclusive, Netaji’s death unraveled
  8. ^ http://indiatoday.intoday.in/site/Story/81464/India/%E2%80%99UP+monk+was+Bose+in+hiding%E2%80%99.html
  9. ^ http://www.thestatesman.net/index.php?option=com_content&view=article&id=320039&catid=38
  10. ^ Li Narangoa, R. B. Cribb, Imperial Japan and National Identities in Asia, 1895-1945, Published by Routledge, 2003
  11. ^ Sisir Kumar Bose, Aleander Werth, Narayan Gopal Jog, Subbier Appadurai Ayer, Beacon Across Asia: A Biography of Subhas Chandra Bose, Published by Orient Blackswan, 1996
  12. ^ Nirad C. Chaudhuri, Thy Hand, Great Anarch!: India, 1921-1952, Published by Chatto & Windus, 1987
  13. ^ P. R. Bhuyan, Swami Vivekananda, Published by Atlantic Publishers & Distributors, 2003
  14. ^ Leonard A. Gordon, Brothers Against The Raj:A Biography of Indian Nationalist Leaders Sarat and Subhas Chandra Bose, Published by Columbia University Press, 1990
  15. ^ Bose to Dr. Thierfelder of the Deutsche Academie, Kurhaus Hochland, Badgastein, 25th March 1936 "Today I regret that I have to return to India with the conviction that the new nationalism of Germany is not only narrow and selfish but arrogant." The Essential Writings of Netaji Subhas Chandra Bose Edited by Sisir K. Bose & Sugata Bose (Delhi: Oxford University Press) 1997 p155
  16. ^ a b Sen, S. 1999. Subhas Chandra Bose 1897-1945. From webarchive of this URL.
  17. ^ Roy, Dr. R.C. 2004. Social, Economic and Political Philosophy of Netaji Subhas Chandra Bose. pp.7-8. Orissa Review. URL accessed on 6 April 2006
  18. ^ "The Fundamental Problems of India" (An address to the Faculty and students of Tokyo University, November 1944): "You cannot have a so-called democratic system, if that system has to put through economic reforms on a socialistic basis. Therefore we must have a political system - a State - of an authoritarian character. We have had some experience of democratic institutions in India and we have also studied the working of democratic institutions in countries like France, England and United States of America. And we have come to the conclusion that with a democratic system we cannot solve the problems of Free India. Therefore, modern progressive thought in India is in favour of a State of an authoritarian character" The Essential Writings of Netaji Subhas Chandra Bose Edited by Sisir K. Bose & Sugata Bose (Delhi: Oxford University Press) 1997 pp319-20
  19. ^ a b "訪印中の安倍首相、東京裁判のパール判事の息子らと面会". Elizabeth Roche. AFPBB News. 2007-08-24. http://www.afpbb.com/article/politics/2271294/2039460?pageID=2. Retrieved 2009-10-02. 
  20. ^ a b "Shinzo Abe visits Netaji Bhavan, sees notion of a ‘Broader Asia’". Staff Reporter. The Hindu. 2007-08-24. http://www.hindu.com/2007/08/24/stories/2007082453761500.htm. Retrieved 2009-10-16. 

 Further reading

  • Indian Pilgrim: an unfinished autobiography / Subhas Chandra Bose; edited by Sisir Kumar Bose and Sugata Bose, Oxford University Press, Calcutta, 1997
  • The Indian Struggle, 1920-1942 / Subhas Chandra Bose; edited by Sisir Kumar Bose and Sugata Bose, Oxford University Press, Calcutta, 1997 ISBN 978-0-19-564149-3
  • Brothers Against the Raj—A biography of Indian Nationalists Sarat and Subhas Chandra Bose / Leonard A. Gordon, Princeton University Press, 1990
  • Lost hero: a biography of Subhas Bose / Mihir Bose, Quartet Books, London; 1982
  • Jungle alliance, Japan and the Indian National Army / Joyce C. Lebra, Singapore, Donald Moore for Asia Pacific Press,1971
  • The Forgotten Army: India's Armed Struggle for Independence, 1942–1945, Peter W. Fay, University of Michigan Press, 1993, ISBN 0-472-08342-2 / ISBN 81-7167-356-2
  • Democracy Indian style: Subhas Chandra Bose and the creation of India's political culture / Anton Pelinka; translated by Renée Schell, New Brunswick, NJ : Transaction Publishers (Rutgers University Press), 2003
  • Subhas Chandra Bose: a biography / Marshall J. Getz, Jefferson, N.C. : McFarland & Co., USA, 2002
  • The Springing Tiger: Subhash Chandra Bose / Hugh Toye : Cassell, London, 1959
  • Netaji and India's freedom: proceedings of the International Netaji Seminar, 1973 / edited by Sisir K. Bose. International Netaji Seminar (1973: Calcutta, India), Netaji Research Bureau, Calcutta, India, 1973
  • Correspondence and Selected Documents, 1930-1942 / Subhas Chandra Bose; edited by Ravindra Kumar, Inter-India, New Delhi, 1992.
  • Letters to Emilie Schenkl, 1934-1942 / Subhash Chandra Bose; edited by Sisir Kumar Bose and Sugata Bose, Permanent Black : New Delhi, 2004
  • Japanese-trained armies in Southeast Asia: independence and volunteer forces in World War II / Joyce C. Lebra, New York : Columbia University Press, 1977
  • Burma: The Forgotten War / Jon Latimer, London: John Murray, 2004

"Mystery over India freedom hero". BBC News. 2006-05-17. http://news.bbc.co.uk/1/hi/world/south_asia/4989868.stm. Retrieved 2008-08-10. 

18.1.11

" शिकागो विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद जी का ऐतिहासिक उदबोधन "

 शिकागो , 11 - सितम्बर-1893


 " अमेरिका के बहनों और भाइयों ,
          आपने जो  हमारा गर्मजोशीपूर्ण और हार्दिक स्वागत  किया  है उससे मेरा  हृदय प्रसन्नता से भर गया है ! मैं   संसार के सर्वाधिक प्राचीन सन्यासी समाज की ओर से आपको धन्यवाद देता हूँ , मैं   धर्मों की जननी (भारत माता) की ओर से आपको धन्यवाद देता हूँ  और मैं सभी जातियों और सम्प्रदायों के असंख्य हिन्दुओं की ओर से आपको धन्यवाद देता हूँ !


          मुझे गर्व है की मैं उस धर्म का हूँ जिसने विश्व को सहनशीलता और सार्वभौमिक सहिष्णुता की शिक्षा दी ! हम न सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता में विश्वास करते हैं बल्कि सभी धर्मों को सत्य मानते हैं ! मुझे गर्व है की मैं ऐसे देश का वासी हूँ जिसने संसार के सभी धर्मों व  सभी राष्ट्रों के पीड़ितों  और शरणार्थियों को आश्रय दिया है ! आपको यह बताते हुए मैं गोरवान्वित महसूस कर रहा हूँ की हमने अपने  हृदय में इजराइलियों  के बचे हुए उस शुद्धतम टुकड़े (जत्थे) को शरण दी जिन्होंने, उस वक्त आकर दक्षिण भारत में हमारे साथ शरण ली जब रोमनों के  निरंकुश शासन ने उनके पवित्र मंदिर को नष्ट कर दिया था !
मुझे गर्व है की मैं उस धर्म का हूँ जिसने महान पारसी समुदाय के शरणार्थियों  को शरण दी और आज भी उनका पालन-पोषण कर रहा है ! भाइयों , मैं आपको उस भजन की कुछ पंक्तियाँ सुनाना चाहता हूँ जिसे मैं बचपन से दोहराता आया हूँ और जिसे प्रतिदिन असंख्य व्यक्ति दोहराते हैं , 
  " जिस प्रकार विभिन्न स्त्रोतों से बहने वाली नदियाँ अपना जल सागर में मिला देती हैं उसी प्रकार ईश्वर को पाने के लिए मनुष्य अपनी विभिन्न परवर्तियों के कारण  जो विभिन्न मार्ग अपनाते हैं , चाहें वह टेढ़ा-मेढा हो या सीधा ,वह सब भी ईश्वर की ओर ही जाते हैं !"

        आज का यह  सम्मेलन भी , जो की अभी तक हुए सभी सम्मेलनों में सर्वाधिक गरिमापूर्ण व महत्वपूर्ण है , अपने आप में गीता द्वारा उपदेशित इस प्रशंसनीय सिद्धांत की ही  पुष्टि है , एक उदघोश है  की , "जो भी मेरी ओर आता है , चाहें वह किसी भी मार्ग से आये , मैं (ईश्वर) उसे मिल जाता हूँ : सभी मनुष्य मुझे पाने वाले मार्ग को लेकर संघर्ष कर रहे हैं !"

       सम्प्रदायवाद, धर्मांधता और उसकी क्रूर संतति , इन धर्मान्धों  ने इस सुंदर भूमि पर लम्बे समय तक अधिकार किया है ! उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है , बार-बार इसे इंसानों के खून से डुबो दिया है , सभ्यता को नष्ट कर दिया है और पूरे राष्ट्र को निराशा की ओर धकेल दिया है ! यदि यह भयानक शैतान नहीं होते तो मानव समाज आज जितना  विकसित है उससे कहीं ज्यादा विकसित होता !पर उनका समय आ गया है , और मैं उत्साह से आशा करता हूँ की वह घंटी, जो आज सुबह इस सम्मलेन के सम्मान में बजी ,वह धर्मांधता , अत्याचार ( चाहें वह तलवार द्वारा हो या कलम द्वारा ) , और एक ही लक्ष्य को पाने के लिए तत्पर मनुष्यों के बीच व्याप्त सभी निर्दय भावनाओं के लिए मृत्यु-नाद साबित होगी  !"

इंग्लिश में-http://www.knowledgebase-script.com/demo/article-169.html

12.1.11

स्वामी विवेकानंद जी

                                                  स्वामी विवेकानंद
      स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस को भारत में "युवा दिवस" के रूप में मनाया जाता है ! स्वामीजी  भारत के उन महापुरुषों में से हैं जिन्होंने भारत के गौरव  और भारतीय अध्यात्म को पूरी दुनिया में बढाया , मानव सेवा को  ही ईश्वर सेवा बताया और  असंख्य भारतीयों को अंधविश्वासों के अँधेरे से निकलकर सच्चे  ईश्वरीय ज्ञान से परिचित  कराया ! 1893 में शिकागो की धर्म संसद में दिया गया उनका ऐतिहासिक भाषण आज भी विश्व प्रसिद्ध है जिसमें उन्होंने " बहेनों  और भाइयों " के  संबोधन से अमेरिकी जनता को सम्मोहित कर लिया था! श्री रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे ! उन्होंने 1897 में रामकृष्ण मठ और  रामकृष्ण मिशन  की स्थापना की !


जन्म और बचपन ->
                                     स्वामी विवेकानंद जी का जन्म  12-जन.-1863  को   प्रात:काल कलकत्ता   के  एक   पारंपरिक कायस्थ परिवारमें  हुआ था तथा उनका मूल   नाम नरेन्द्र नाथ दत्त  था !उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता  हाईकोर्ट में अटोर्नी  थे व् माँ भुवनेश्वरी  देवी एक   पवित्र एव धार्मिक गृहणी थी !  उनकी माँ  ने पुत्र   प्राप्ति केलिए कशी के  वीरेश्वर शिव की  आराधना की और फिर बालक नरेन्द्र नाथ का जन्म हुआ ! उन पर अपने  माता-पिता का काफी प्रभाव रहा , जैसे उन्होंने पिता से  विवेकशीलता तथा माँ से धार्मिक स्वाभाव पाया !अपनी माँ  द्वारा कही गयी एक बात वह अक्सर कहते थे की ,
  " जीवनभर  पवित्र रहो ;अपने सम्मान की रक्षा  करो और दूसरों के सम्मान का उलंघन भी न करो ! सदेव शांत व् मृदु  रहो पर जब आवश्यकता पड़े तब अपने ह्रदय को मजबूत भी बनाओ !"
                                      
  कहा जाता है की वह ध्यान लगाने  में दक्ष थे तथा समाधी की दशा में भी चले जाते थे ! बचपन से ही उन्हें  तपस्वी व् सन्यासियों के प्रति विशेष आकर्षण था !
       उनकी विविध विषयों में रूचि थी जैसे धर्म , दर्शन , इतिहास , समाजशास्त्र , कला , साहित्य , आदि ! उनकी वेदों , उपनिषदों  ,भगवत गीता ,रामायण ,आदि में विशेष रूचि थी ! साथ ही उन्हें शास्त्रीय संगीत का भी अच्छा ज्ञान था और उन्होंने बेनी गुप्ता व् अहमद  खान से संगीत की शिक्षा पाई थी ! वह   बचपन से ही शारीरिक व्यायाम , खेलकूद ,आदि में भी भाग लेते  थे ,  बचपन से ही अंधविश्वासों व जाती के आधार  पर होने वाले भेद-भावों पर प्रश्न करते तथा किसी भी बात को तर्क व  व प्रमाणों  के बिना स्वीकार नहीं करते थे !
 सन 1877 में उनके पिता को रायपुर जाना पड़ा और उनके साथ ही नरेन्द्र व उनका पूरा परिवार भी गया !वहां अच्छे  स्कूल  न होने के कारण नरेन्द्र अपने पिता के साथ आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते हुए समत बिताते  थे ! रायपुर में ही उन्होंने हिंदी सीखी तथा वहीँ पहली बार उनके मन में ईश्वर के अस्तित्व का प्रश्न पैदा हुआ !उनका परिवार 1879 में वापस कलकत्ता आ गया पर रायपुर में बिताये यह दो वर्ष उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले रहे और इसीलिए ही कभी-कभी रायपुर को विवेकानंद जी की ' आध्यात्मिक जन्मभूमि ' भी कहा जाता है !

कॉलेज और ब्रम्ह समाज ->
        नरेन्द्रनाथ ने शुरुआती शिक्षा घर पर ही  प्राप्त की और फिर 1871 में उन्होंने ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के संस्थान में दाखिला लिया ! 1879 में उन्होंने कलकत्ता के प्रेसिडेंसी  कॉलेज की प्रवेश परीक्षा पास की और उसके कुछ समय बाद जनरल अस्सेम्ब्ली  संस्थान,कलकत्ता  (स्कॉटिश  चर्च  कॉलेज  ) में दाखिला लिया ! इस दोरान उन्होंने पाश्चात्य तर्क ,  पाश्चात्य दर्शन और यूरोपीय देशों के इतिहास का अध्यन किया ! 1881 में उन्होंने फाइन आर्ट्स  की परीक्षा पास की और 1884 में  बी. ए. की परीक्षा पास की !
     कहा जाता है की उन्होंने  David Hume, Immanuel Kant, Johann Gottlieb Fichte, Baruch Spinoza, Georg W. F. Hegel, Arthur Schopenhauer, Auguste Comte, Herbert Spencer, John Stuart Mill, और  Charles डार्विन जैसे लेखकों को पढ़ा था !वह हर्बर्ट  स्पेंसर के विकास सिद्धांत से प्रभावित हुए और उन्होंने स्पेंसर की 'शिक्षा' पर लिखी किताब का बंगला भाषा  में अनुवाद किया !कुछ समय तक उनका स्पेंसर के साथ पत्र-व्यव्हार भी रहा ! पाश्चात्य विद्वानों के अध्यन के साथ ही साथ वह संस्कृत के धर्मग्रंथों व बंगाली साहित्य का भी अध्यन करते रहे ! उनके प्रोफेसरों के अनुसार नरेन्द्र 'विलक्षण प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ' थे ! स्कॉटिश  चर्च  कॉलेज  के प्रिंसिपल डा. विलियम हस्ती के अनुसार "नरेन्द्र सचमुच जिनिअस  है, मैं कई जगह घूमा हूँ पर मैंने  ऐसा प्रतिभावान व संभावनाशील युवक नहीं देखा , जर्मन  युनिवर्सिटियों  में भी नहीं ! "  उन्हें "श्रुतिधरा" कहा जाता था अर्थात अद्भुत स्मरण शक्ति वाला !
        नरेंद्र  फ्रीमेसन  लोज के सदस्य बन गए ! उनके प्रारंभिक विश्वासों को ब्रम्ह संकल्पना ने काफी पभावित किया जैसे   निराकार  ईश्वर में  विश्वास और मूर्ती-पूजा का विरोध ! पर अपने  दार्शनिक ज्ञान से भी  उन्हें संतुष्टि नहीं मिली और उत्सुकता बनी रही तब उन्होंने कलकत्ता के अनेक प्रमुख व प्रतिष्ठित लोगों से यह प्रश्न किया की " क्या उन्होंने ईश्वर को साक्षात् देखा है ? " पर कोई भी जवाब उन्हें संतुष्ट नहीं कार पाया!

 श्री रामकृष्ण से भेंट ->
     नरेंद्र  ने श्री रामकृष्ण के बारे में पहली बार अपने कॉलेज में सुना जब उनके प्रिंसिपल विलियम हेस्टि  ने विलियम वोर्ड्स्वेर्थ की  कविता 'the excursion'  के एक
शब्द 'trance' (भाव समाधि) का अर्थ बताते हुए कहा की अगर किसी को इस
शब्द का असली अर्थ जानना है तो उसे तारकेश्वर के रामकृष्ण से मिलना
चाहिए  !यह सुनकर नरेन्द्र सहित कुछ छात्र उनसे मिलने गए.
     1881  में रामकृष्ण से हुई नरेन्द्र की मुलाकात उनके जीवन में क्रन्तिकारी रही !इस मुलाकात के बारे में नरेन्द्र ने कहा की "वह दिखने में एकदम साधारण व्यक्ति थे और बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग करते थे , मैंने सोचा की 'क्या यह कोई  महान शिक्षक हो सकते हैं ?' मैंने उनके पास जाकर उनसे भी वही सवाल किया जो मैंने जीवन-भर दूसरे लोगों से किया था की ' श्रीमान , क्या आप ईश्वर  के अस्तित्व में विश्वास करते हैं ? ' उन्होंने कहा 'हां'  फिर मैंने अगला प्रश्न किया की 'क्या आप यह साबित कार सकते हैं ? ' तो उन्होंने कहा 'हां' मैंने फिर पूछा   'कैसे ?' उन्होंने कहा ' क्योंकि मैं उसे बिलकुल वैसे ही देख सकता हूँ जैसे की तुम्हें अपितु अत्यधिक गहन भाव में !' इस बात ने ही मुझे पूर्णत:  प्रभावित कर  दिया ... मैंने दिन-प्रतिदिन उनके पास जाना शुरू कार दिया और देखा की धर्म वास्तव में दिया भी जा सकता है ! एक स्पर्श , एक द्रष्टि पूरा जीवन बदल सकती है "
 यद्यपि शुरू में नरेन्द्र ने उन्हें अपना गुरु नहीं माना  और उनके विचारों का विरोध किया पर वह उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और उनसे मिलने जाते रहे ! शुरू में उन्हें लगता था की रामकृष्ण जी की परम आनंद की अवस्था और अलौकिक आभास सिर्फ  कल्पना और मतिभ्रम है !
ब्रम्ह समाज का सदस्य होने के नाते वह मूर्तिपूजा , बहुदेववाद और रामकृष्ण जी की काली पूजा का विरोध करते थे ! यहाँ तक की वह अद्वैत वेदान्त  की विचारधारा को ईश-निन्दा और मूर्खता  के समान  मानते थे और यदा-कदा उसका मजाक बनाते थे !
  यद्यपि शुरू में नरेन्द्र ने रामकृष्ण जी और उनकी विचारधारा को नहीं माना पर वह उसे पूर्णत:  नकार भी नहीं सके ! यह शुरू से ही  नरेन्द्र की प्रकृति रही थी कि वह बिना प्रमाणों  के कोई बात नहीं मानते थे , इसी तरह उन्होंने पहले रामकृष्ण जी को परखा , जिन्होंने कभी  उन्हें उनकी तार्किकता को छोड़ने के लिए नहीं कहा और उनके सभी  तर्कों  और आलोचनाओं को धर्य के साथ सुना ! उनका सदेव एक ही जवाब होता था की " सत्य को सभी द्रष्टिकोड़ों  से जानने की कोशिश करो !" पांच वर्षों तक रामकृष्ण जी के प्रशिक्षण में रहने के दोरान नरेन्द्र में यह परिवर्तन आया की अब वह एक व्याकुल , परेशान   ,अधीर युवक से एक परिपक्व पुरुष में बदल गए , जो ईश्वर - प्राप्ति  के लिए सब कुछ त्यागने के लिए तत्पर  था !  अंत में उन्होंने पूर्ण ह्रदय से रामकृष्ण जी को अपना गुरु स्वीकार कार  लिया  और उनके शिष्य बन गए !
1885 में रामकृष्ण जी को गले का कैंसर हो गया अत:  उन्हें कलकत्ता और फिर काशीपुर ले जाया गया !उनके अंतिम दिनों में विवेकानंद और उनके साथी शिष्यों ने रामकृष्ण जी की सेवा की ! वहां भी विवेकानंद  रामकृष्ण जी से अध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करते रहे ! कहा जाता है की काशीपुर में विवेकानंद को निर्विकल्प समाधी का अनुभव हुआ ! अपने अंतिम दिनों में रामकृष्ण जी ने विवेकानंद सहित अपने कुछ शिष्यों को तपस्वी के समान भगवा रंग के कपडे दिए जो रामकृष्ण जी के मठ संबंधी पहला  आदेश बना ! उन्होंने विवेकानंद से अपने साथी शिष्यों का ध्यान रखने  को कहा और उन शिष्यों से कहा कि वह विवेकानंद को अब अपना प्रमुख माने  ! विवेकानंद ने सीखा  था की मानव - सेवा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है ! कहते हैं की जब विवेकानंद ने रामकृष्ण जी के सामने अवतारवाद पर प्रश्न किया तब रामकृष्ण जी ने कहा की " जो राम था , जो कृष्ण  था वही अब इस शारीर  में रामकृष्ण  है ! " धीरे -धीरे रामकृष्ण जी की दशा ख़राब होती गयी और अंतत 16 -अग. -1886 की सुबह उनका देहांत हो गया जिसे उनकी महासमाधि कहा जाता है !
 इंग्लिश में जानकारी के लिए ->
बारानगर मठ (Baranagar Monastery) ->
 श्री रामकृष्ण  जी की म्रत्यु के पश्चात् स्वामी नरेंद्र  जी के नेतृत्व में सभी शिष्यों ने बारानगर के एक पुराने घर में एक संघ की स्थापना की ! इस जीर्ण-शीर्ण घर में नरेन्द्र व अन्य सदस्य ध्यान करते ,  दर्शनशास्त्र तथा रामकृष्ण , आदि-शंकराचार्य ,रामानुज , इसा-मसीह ,आदि आध्यात्मिक गुरुओं की शिक्षाओं पर चर्चा करते हुए समय व्यतीत करते ! इस मठ के शुरुआती दिनों की याद करते हुए नरेन्द्र कहते थे " हमने  बारानगर मठ में अनेक धार्मिक प्रणालियों का अभ्यास किया !हम प्रात: तीन बजे उठकर जप और ध्यान में लीन हो जाते  थे !तब हममें तल्लीनता की कितनी प्रबल भावना थी की हमें यह भी ख्याल नहीं होता था की  संसार का अस्तित्व है भी या नहीं !"

परिव्राजक के रूप में (Wandering monk) ->
  1888 में नरेंद्र जी  ने बारानगर मठ से प्रस्थान किया और वह परिव्राजक बन गए !अब उनके साथ मात्र एक कमंडल ,छड़ी  और उनकी दो पसंदीदा पुस्तकें - भगवत गीता और द  इमिटेशन  ऑफ़ क्राइस्ट  ( The Imitation of christ )   ही थीं ! नरेंद्र जी ने पांच वर्षों तक पूरे भारत का भ्रमण किया ! इस दोरान  उन्होंने शिक्षा के अनेक केन्द्रों का भ्रमण  किया ,  विभिन्न धार्मिक रीती-रिवाजों  और  सामाजिक  जीवन के विविध  स्वरूपों का  दर्शन किया !  लोगों की पीड़ा और दरिद्रता को देखकर उनका हृदय संवेदना से भर उठा  और उन्होंने राष्ट्र की  दशा सुधारने का प्रण कर लिया ! वह केवल भिक्षा से ही जीवनयापन करते थे और अधिकतर पैदल ही घूमते थे ! यदि कोई प्रशंसक  रेल की टिकेट दिला देता तो रेल से यात्रा  करते !
इन यात्राओं के द्वारा वह अनेक लोगों से परिचित हुए और सभी तरह के लोगों के साथ रहे , फिर चाहें वह विद्वान हो , दीवान हो , राजा हो , हिन्दू ,मुस्लिम, इसाई हो ,उच्च जाती का हो या निम्न जाती का हो या सरकारी अधिकारी ही हो !

उत्तर भारत की यात्रा ->
 1888 में नरेंद्र जी ने अपनी यात्रा वाराणसी से शुरू की ! वाराणसी में वह पंडित और बंगाली लेखक बुद्धदेव मुखोपाध्याय और शिव मंदिर के प्रसिद्ध संत त्रिलंग स्वामी से मिले !यहीं वह संस्कृत के प्रमुख विद्वान बाबू प्रमादादास मित्र से मिले , जिन्हें उन्होंने हिन्दू ग्रंथों की विवेचना के सम्बन्ध  में अनेक  पत्र लिखे थे ! वाराणसी के पश्चात् वह अयोध्या ,लखनऊ ,आगरा , वृन्दावन ,हाथरस और ऋषिकेश गए ! हाथरस में वह शरत चन्द्र गुप्ता से मिले जो एक स्टेशन मास्टर थे और नरेंद्र जी के शिष्य बने ! इसके बाद वह इलाहाबाद , गाजीपुर गए ! गाजीपुर में वह अद्वैत वेदांत के ज्ञाता तपस्वी पव्हारी बाबा से मिले ! 1888-1890 के बीच  ख़राब स्वास्थ्य तथा धन की व्यवस्था करने के लिए वह कुछ बार बारानगर मठ वापस गए ! ( क्योंकि मठ की आर्थिक सहायता करने वाले बलराम बोस और सुरेश चन्द्र मित्र का  देहांत हो गया था !)

 हिमालय की यात्रा  ->
  1890 में अपने साथी भिक्षु-बन्धु स्वामी अखंडानंद  के साथ उन्होंने अपनी परिव्राजक की यात्रा जारी  रखी! उन्होंने  नैनीताल ,अल्मोड़ा ,श्रीनगर ,देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार और हिमालय की यात्रा की !कहा जाता है की इस यात्रा के दोरान ही उन्हें विराट जगत और सूक्ष्म जगत (macrocosm and microcosm) का आभास  हुआ जिसका दर्शन हम उनके ज्ञान योग पर दिए गए उस व्याख्यान में करते  है जो उन्होंने बाद में पश्चिम में दिया था ("The CosmosThe Macrocosm and The microcosm ") ! इन यात्राओं के दोरान वह अपने भिक्षु-बंधुओं - स्वामी ब्रम्हानंद ,शारदानंद , तुरीयानन्द ,अखंडानंद और अद्वैतानन्द से मिले ! उन्होंने कुछ दिन मेरठ  में बिताये और फिर वह जन. 1891 में अपने साथी भिक्षुओं को छोड़ दिल्ली  की यात्रा पर अकेले चल पड़े !

राजपूताना  ->
  दिल्ली पहुंचकर स्वामीजी वहाँ के ऐतिहासिक स्थानों का दर्शन करने के पश्चात् वह अलवर पहुंचे ! इसके बाद वह जयपुर गए जहाँ उन्होंने पाणिनि  की अष्टाध्यायी  का अध्यन किया ! यहाँ से वह अजमेर और माउन्ट आबू  गए ! माउन्ट आबू  में उनकी भेंट खेतरी के महाराजा अजित सिंह से हुई , जो उनके उत्कट भक्त और समर्थक बन गए और उन्हें खेतरी आने का निमंत्रण  दिया ! खेतरी में उन्होंने पाणिनि के सूत्रों पर लिखे महाभाष्य का अध्यन किया और यहीं   उनकी भेंट पंडित नारायणदास से हुई !यहाँ ढाई माह रहने के पश्चात् , अक्टूबर के अंत में वह राजस्थान और महाराष्ट्र की यात्रा पर चल पड़े !
पश्चिमी भारत की यात्रा ->
अपनी यात्रा के अगले चरण में वह अहमदाबाद ,वाधवन और लिम्ब्दी गए !अहमदाबाद में उन्होंने मुस्लिम और जैन संस्कृति का अध्यन पूरा किया !लिम्ब्दी में उनकी भेंट ठाकुर साहब जसवंत सिंह से हुई ,जो इंग्लॅण्ड और अमेरिका की यात्रा कर चुके थे ! ठाकुर साहब से ही स्वामीजी को पहली बार पश्चिम जाकर वेदांत पर उपदेश देने का विचार आया ! बाद में वह जूनागढ़ , गिरनार , कच्छ , पोरबंदर , द्वारका , पलिताना और बरोडा गए ! बाद में वह महाबलेश्वर और पुणे गए ! पूना  से जून, 1892 के आसपास वह खंडवा और इंदौर गए ! काठीयावाड  में उन्होंने विश्व धर्म संसद के बारे में सुना और उनके अनुयायियों ने उन्हें उसमें सम्मिलित होने के लिए प्रार्थना की  ! खंडवा के बाद वह जुलाई,1892  में मुंबई पहुंचे !पुणे जाने वाली ट्रेन में उनकी भेंट बाल गंगाधर  तिलक से हुई और कुछ दिन तिलक जी के साथ पुणे में रहने के बाद  स्वामीजी अक्टूबर,1892 में बेलगाँव गए और उसके बाद पंजिम , मार्गाओ  ,धार्वार  और बंगलोर गए !

दक्षिण भारत की यात्रा ->
बंगलोर में उनका परिचय मैसूर रियासत के दीवान के. शेषाद्री अय्यर से हुआ और बाद में वह मैसूर के महाराजा श्री चमराजेंद्र वादियार  के अतिथि बनकर उनके महल में रहे ! बंगलोर से वह त्रिचूर ,कोदंगाल्लूर ,एर्नाकुलम गए !एर्नाकुलम में उनकी मुलाकात नारायण स्वामी के समकालीन चत्ताम्पी स्वमिकल से हुई !एर्नाकुलम से वह पदयात्रा करते हुए , त्रिवेंद्रम , नगरकोइल होते  हुए , कन्याकुमारी पहुंचे ! कहा जाता है की कन्याकुमारी में नरेंद्र ने   भारत भूमि (शिला) के अंतिम छोर पर, जिसे अब " विवेकानंद  राक मेमोरिअल " कहा जाता है , पर बैठकर  तीन दिनों तक समाधी लगायी !कन्याकुमारी में ही उन्होंने 'एक भारत की कल्पना ' की जिसे सामान्य रूप से "1892  का कन्याकुमारी संकल्प" ' ("The Kanyakumari resolve of 1892" ) कहा जाता है ! इसके बारे में वह लिखते हैं ,
       "  कन्याकुमारी में माँ कुमारी के मंदिर में भारतीय भूमि के अंतिम छोर पर बैठकर मुझे अचानक एक  उपाय सूझा : हम इतने सारे  सन्यासी यहाँ-वहां घूमते हैं और लोगों को तत्वमीमांसा  का ज्ञान देते  रहते हैं - यह सब मूर्खता है! एक राष्ट्र के रूप में हम अपनी विशिष्टता खो चुके हैं और यही कारण है भारत  में व्याप्त सभी बुराइयों  का ! हमें लोगों को जगाना होगा  !"
          कन्याकुमारी से वह मदुरे गए जहाँ वह रमनद के राजा भास्कर सेतुपति से मिले ! राजा स्वामीजी के शिष्य बन गए और उनसे शिकागो की धर्म संसद में भाग लेने का निवेदन किया ! मदुरे से वह रामेश्वरम ,पांडिचेरी और मद्रास होते हुए हैदराबाद पहुंचे !मद्रास में उन्हें अलासिंगा पेरूमल और जी.जी. नार्सिम्हाचारी जैसे अपने अनन्य शिष्य  मिले जिन्होंने स्वामीजी की अमेरिकी यात्रा और मद्रास में रामकृष्ण मठ की स्थापना  हेतु धन एकत्रित करने में अपना प्रमुख योगदान दिया ! मद्रास के शिष्यों , मैसूर , रमनद ,खेतरी के राजाओं , दीवानों व अन्य अनुयायियों द्वारा की गयी आर्थिक सहायता से स्वामीजी ने 31 -मई- 1893 को  मुंबई से शिकागो  के लिए प्रस्थान किया और खेतरी के महाराजा के सुझाव पर अपना नाम "विवेकानंद " कर लिया ! 
जापान की यात्रा ->
 1893 में अपनी शिकागो यात्रा के मार्ग में विवेकानंद जी जापान पहुंचे ! जापान में वह नागासाकी, कोबे, योकोहामा ,ओसाका , क्योटो  और टोक्यो जैसे प्रमुख नगरों में गए ! वह जापानियों की स्वच्छता से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने जापानियों को " संसार के सबसे स्वच्छ लोगों में से एक " बताया ! वह न केवल  उनके साफ़ मार्गों और घरों से ही प्रभावित हुए बल्कि उनकी  गतिविधियों ,प्रवृति और भाव भंगिमा से भी बहुत प्रभावित हुए !  यह समय जापान में , प्रथम चीन - जापान युद्ध (1894-1895) और रूस-जापान युद्ध ,से पूर्व तीव्र सैन्य वृद्धि व संगठन  का समय था ! इन तैयारियों के विषय में स्वामी विवेकानंद जी लिखते हैं ,
   " ऐसा लगता है जैसे की जापानी वर्तमान  की आवश्यकताओं के अनुसार  जाग्रत हो गए  है ! अब उनके पास बंदूकों से सुसज्जित पूर्णत  संगठित सेना है , इन बंदूकों को उन्हीं के अधिकारीयों ने बनाया है और उन्हें अद्वितीय माना जाता  हैं !वह लगातार अपनी नौसेना भी बढा रहे हैं !"  
    वहाँ के औद्योगिक विकास के विषय में वह कहते हैं ,
   "  उनकी  फेक्टरियाँ देखने योग्य हैं   और वह (जापानी) अपनी जरूरत की सभी चीजें अपने देश में ही बनाने को प्रतिबद्ध हैं !"
   जापान के तीव्र विकास से भारत की स्थिति  की तुलना करते हुए वह अपने देशवासियों को " शताब्दियों के अंधविश्वासों और अत्याचारों की  सन्तान " कहते हैं !वह उन्हें उनकी मानसिकता के  संकीर्ण छिद्रों से निकलकर बाहर (विदेश)की दुनिया को  देखने को कहते हैं , 
   " मैं बस यह चाहता हूँ की हमारे कुछ युवा हर साल जापान और चीन जायें, खासकर जापान जायें ! भारत आज भी हर उच्चतम और अच्छी वास्तु  का स्वप्नलोक है और तुम , तुम क्या हो ? अपने पूरे जीवनभर गप्प मारने वाले ,निरर्थक बातों वाले  , तुम क्या हो ?  आओ , इन  लोगों को देखो और अपने चेहरों को जाकर शर्म से छुपालो ! मानसिक रूप से दुर्बल लोगों  की संतानों , तुम अपनी जाति से गिर जाओगे अगर तुम बाहर गए तो ! सदियों से अंधविश्वासों के बोझ से तुम्हारी  बुद्धि दबी है , सेकड़ों साल तुमने अपनी शक्ति इस या उस भोजन की पवित्रता और अपवित्रता की चर्चा करने में खर्च की , युगों के सामाजिक अत्याचारों ने तुम्हारे अन्दर की मानवता को नष्ट कर दिया है - तुम क्या हो ? और अब तुम क्या कर रहे हो ? समुद्र किनारे हाथों में किताबें लेकर घूमना , यूरोपीय बोधिक कार्य  के बिखरे टुकड़ों को दोहराना और व्यक्ति की यह पूरी मेहनत तीस  रु. की क्लर्क की नोकरी  पाने के लिए या ज्यादा से ज्यादा वकील बनने के लिए है -यह है युवा भारत की महत्वाकांक्षा की सीमा !
   फ़रवरी  1897 में भारत वापस आने पर जब द हिन्दू समाचारपत्र के संवादाता ने स्वामीजी से प्रश्न किया ," क्या आपकी यह इच्छा है की भारत जापान की तरह बन जाए ?"तो स्वामीजी ने इसका सुस्पष्ट   उत्तर दिया ," निश्चित रूप से  नहीं !" उन्होंने कहा ," भारत को वही रहना चाहिए जो वो है ! भारत जापान या कोई और राष्ट्र जैसा कैसे बन सकता है ? हर राष्ट्र में संगीत के सामान एक मुख्य तान होती है , एक मूल विषय होता है , जिसके आधार पर बाकी सभी रूपांतरित होते हैं ! हर राष्ट्र का एक मूल विषय होता है और बाकी सब कुछ दूसरे स्थान पर होता है ! भारत का मूल विषय धर्म है ! समाज सुधार और शेष सब कुछ द्वितीयक है इसीलिए भारत जापान की तरह नहीं हो सकता !कहते हैं की जब ह्रदय टूट जाता है तब विचारों का प्रवाह बहता है !भारत का भी ह्रदय टूटना चाहिए और तब ही आध्यात्म  का प्रवाह बहेगा !भारत भारत है , हम जापानियों की तरह नहीं हैं हम हिन्दू हैं ! " 

पश्चिम की प्रथम यात्रा ->
  चीन , कनाडा होते हुए वह जुलाई ,1893  को शिकागो पहुंचे पर उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई की  किसी प्रमाणित संगठन द्वारा दिए गए प्रमाण  पत्र के बिना किसी को भी  प्रतिनिधि नहीं माना जायेगा !शिकागो में  स्वामीजी हार्वर्ड विश्वविद्यालय  के प्रोफ़ेसर जोन हेनरी राइट के संपर्क में आये ! स्वामीजी को हार्वर्ड में बुलाने और यह जानने के पश्चात की उनके पास प्रमाण पत्र नहीं है , प्रो. हेनरी राइट ने कहा ," आपसे प्रमाण पत्र माँगना वैसा ही है जैसे सूर्य से यह पूछना की क्या उसे आकाश में चमकने का अधिकार है !" तब राइट ने प्रतिनिधियों के प्रभारी अध्यक्ष को यह पत्र लिखा की " यह व्यक्ति हमारे सभी विद्वान् प्रोफेसरों(एक साथ) से ज्यादा विद्वान्  है !" 

विश्व धर्म संसद ->
   विश्व धर्म संसद का शुभारम्भ  11- sitamber -1893  को शिकागो के आर्ट इंस्टिट्यूट  में हुआ !इस दिन व ने अपना लघु व्याख्यान दिया और भारत व हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व किया !उन्होंने सबसे पहले ज्ञान की देवी सरस्वती के आगे सिर झुकाया और अपना भाषण इन शब्दों के साथ शुरू किया ," अमेरिका के बहेनों और भाइयों !" यह सुनते ही 7000 श्रोताओं ने दो मिनट तक खड़े होकर उत्साहपूर्वक उनकी जयजयकार की ! अपने एतिहासिक  भाषण में स्वामी जी ने कहा ,
  " जैसे विभिन्न स्त्रोतों से आने वाली नदियाँ अपना जल सागर में मिला देती हैं उसी तरह , हे प्रभु , मनुष्य विभिन्न प्रवृतियों के कारण जो  अनेक मार्ग अपनाता है ,टेढ़े-मेढे या सीधे ,  वह सब आपकी ओर ही जाते हैं !"
     लघु व्याख्यान होने के बावजूद इसने संसद के उद्देश्य और उसकी सार्वभौमिक भावना को पूर्णत: अभिव्यक्त  कर दिया !
  संसद के अध्यक्ष  डा. बेरो  ने कहा ," भारत- धर्मों की माँ जिसका प्रतिनिधित्व विवेकानंद  ने किया ,एक भगवा-संन्यासी ,जिन्होंने  अपने श्रोताओं पर  सर्वाधिक आश्चर्यजनक  प्रभाव डाला ! " उन्होंने वहाँ की प्रेस का व्यापक ध्यान आकर्षित किया , जिसने उन्हें "  भारत का तूफानी संन्यासी  " की उपाधि दी ! न्यूयोर्क क्रिटिक (New York Critique ) ने लिखा " वह देवीय अधिकार से ही वक्ता हैं और उनका ओजस्वी ,ज्ञानपूर्ण  चेहरा अपने  पीले और नारंगी मनोहर समायोजन में , उन सच्चे  शब्दों से मुश्किल से  कुछ ही कम  मनभावना है  , जिन्हें वह अत्यधिक शानदार ,लय-बध  रूप से उच्चारित करते हैं! "न्यूयोर्क हेराल्ड ( New York Herald ) के अनुसार ," विवेकानंद निस्संदेह  धर्म संसद की महानतम विभूति  हैं ! उन्हें सुनने के बाद हमें लगता है की ऐसे ज्ञानी राष्ट्र में मिशनरियां  भेजना  कितनी बड़ी मूर्खता है ! " अमेरिकी अख़बारों ने उन्हें " धर्म-संसद की महानतम  विभूति" और "धर्म-संसद में सर्वाधिक लोकप्रिय व प्रभावशाली व्यक्ति " बताया !
   27-सितम्बर-1893 को विश्व धर्म संसद  का समापन हो गया !स्वामीजी ने संसद में  अनेक बार हिंदुत्व और बुद्धिस्म से सम्बंधित विषयों पर व्याख्यान दिया !उनके सभी भाषणों का केन्द्रीय तत्व था -सार्वभोमिकता और धार्मिक सहिष्दुता पर जोर!  

अमेरिका और इंग्लॅण्ड में यात्राएं  ->
   विश्व धर्म संसद  की समाप्ति के पश्चात विवेकानंद जी ने लगभग दो वर्ष तक पूर्वी और केन्द्रीय अमेरिका के विभिन्न भागों में व्याख्यान दिए, विशेषकर शिकागो, देत्रोइत (detroit),बोस्टन और न्यूयोर्क  में !इस लगातार परिश्रम के कारण  1895 की वसंत ऋतू  तक वह थक चुके थे व उनका स्वास्थ्य भी खराब हो गया था ! अपनी व्याख्यान यात्राओं को विराम देते हुए  उन्होंने वेदान्त और योग की व्यक्तिगत और निशुल्क कक्षाएं  देना शुरू कर दिया ! बाद में उन्होंने  न्यूयोर्क की वेदान्त सभा की स्थापना की !
   अपनी प्रथम अमेरिकी यात्रा के दोरान स्वामी विवेकानंद  ने 1895 और 1896 में इंग्लॅण्ड की दो यात्राएं की !यहाँ भी उनके भाषण सफल रहे और उनकी भेंट एक आयरिश महिला -मिस मारग्रेट  नोबल से हुई , जो बाद में बहेन  निवेदिता बन गयीं !अपनी दूसरी यात्रा के दोरान मई,1896 में, पिमलिको में निवास के दोरान उनकी मुलाक़ात मेक्स  मुल्लर से हुई ,जिन्होंने पश्चिम में रामकृष्ण जी की प्रथम जीवनी लिखी !
   उन्हें दो प्रमुख विश्वविध्यालयों - हार्वर्ड  विश्वविध्यालय और कोलम्बिया विश्वविध्यालय ,से पूर्वी दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक पद हेतु अकादमिक प्रस्ताव भी मिले किन्तु उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया की एक घुमंतू सन्यासी होते हुए वह इस तरह के कार्य हेतु एक स्थान पर नहीं रह सकते !
      इस दोरान उन्हें अनेक सच्चे अनुयायी मिले जिन्होंने अद्वैत आश्रम की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया  और जे.जे.गुडविन उनके स्टेनोग्राफेर  बन गए जिन्होंने स्वामीजी की शिक्षाओं  और भाषणों को रिकार्ड किया ! उनके अनुयायी -एक फ़्रांसिसी महिला मैडम  लूइस स्वामी अभयानंद बन गयीं और मिस्टर लेओने लेंड्सबर्ग  स्वामी कृपानंद बन गए !उनके अनेक अनुयायी उनकी प्रेरणा से ब्रम्हचारी बन गए !
  विवेकानंद जी  के विचारों ने अनेक विद्वानों  और महान विचारकों को भी प्रभावित किया !
      विदेश में होते हुए भी स्वामीजी ने पश्चिम से ही भारत में अपने कार्य को चलायेमान रखा! वह निरंतर रूप से अपने भारतीय अनुयायियों और साथी भिछुओं को पत्र लिखते रहे और धन भी भेजते रहे! वह लगातार अपने प्रमुख शिष्यों को एक महान उद्देश्य के लिए प्रेरित करते रहे  ! ऐसे ही एक पत्र में उन्होंने स्वामी अखंडानंद को लिखा ," खेतरी  के निर्धन और निचले लोगों के बीच द्वार-द्वार जाओ और उन्हें धर्म की शिक्षा दो ! साथ ही उन्हें भूगोल और ऐसे ही विषयों की भी शिक्षा दो !  खाली बैठकर और राजसी भोजन करके "रामकृष्ण, ओ प्रभु !" कहने का कोई लाभ नहीं है जब तक की तुम गरीबों का कुछ भला नहीं करते !" अंततः 1895  में, स्वामीजी  द्वारा भेजे  गए धन से , मद्रास में ब्रम्हवादीन नामक पत्र का प्रारंभ हुआ ,जिसका उद्देश्य था वेदान्त का प्रसार !बाद में ब्रम्हवादीन में स्वामीजी द्वारा अनुवादित 'द इमिटेशन  ऑफ़ क्राइस्ट ' के छ  पाठ प्रकाशित हुए !
     पश्चिम में कुछ वर्ष के प्रवास के बाद स्वामी विवेकानंद जी 16 -दिस.-1896  को अपने कुछ अनुयायियों के साथ इंग्लॅण्ड से भारत की ओर  चले ! इस यात्रा में वह फ्रांस और इटली भी गए और लिओनार्दो डा विन्सी की कृति ' द लास्ट सप्पर'  भी देखी ! बाद में मिस मुलर और सिस्टर निवेदिता भी भारत आ गयीं !सिस्टर निवेदिता ने अपना पूरा जीवन भारतीय महिलाओं को शिक्षित करने में और भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति में लगा दिया !              
वापस भारत में ->

     स्वामीजी 15-जन.- 1897 को कोलम्बो पहुंचे जहां उनका चित्ताकर्षक स्वागत हुआ !यहाँ उन्होंने पूर्व में अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया -"भारत-एक पवित्र भूमि "(india-the holy land ) !यहाँ से लेकर कलकत्ता तक की उनकी यात्रा विजयोल्लास से परिपूर्ण रही ! वह कोलम्बो से पंबन, रामेश्वरम,रमनद, मदुरे ,कुम्बकोनाम और मद्रास गए और अपने ओजस्वी व्याख्यान दिए !जनता और राजाओं ने उनका उत्साहपूर्वक स्वागत किया ! पंबन में जुलूस के दोरान रमनद के राजा ने स्वयं स्वामीजी का सामान उठाया !मद्रास के मार्ग में , अनेक स्थानों पर जहां रेलगाड़ी नहीं रूकती थी वहाँ लोग पटरियों पर बैठ जाते और स्वामीजी को सुनने के बाद ही रेलगाड़ी को आगे जाने देते थे !मद्रास से कलकत्ता तक उनकी यात्राएं और अल्मोड़ा तक उनके व्याख्यान जारी रखे ! 
        जहां  पश्चिम में वह भारत की  महान आध्यात्मिक  की बात करते थे ,वहीँ भारत में उनके भाषणों में मुख्य विषय था -जन साधारण  की उन्नति,जाति व्यवस्था का अंत ,विज्ञान की शिक्षा को प्रोत्साहन ,देश का ओद्योगिकीकरण ,निर्धनता की समाप्ति और ओप्निवेशिक शासन की समाप्ति !यह व्याख्यान " लेक्चेर्स फ्रॉम कोलम्बो टू अल्मोड़ा " नाम से प्रकाशित हुए !उनके भाषणों का अनेक भारतीय नेताओं ,जैसे महात्मा गाँधी, बिपिन चन्द्र पाल , बाल गंगाधर तिलक ,आदि  पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा !
रामकृष्ण   मठ और मिशन की स्थापना ->

   कलकत्ता   में 1-मई-1897 को विवेकानंद जी  ने धर्म-प्रचार के लिए " रामकृष्ण मठ " और समाज सेवा के लिए "रामकृष्ण मिशन " की स्थापना की ! यह एक संगठित  सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन की शुरुआत थी जिसका उद्देश्य था शेक्षणिक, सांस्कृतिक, चिकित्सकीय  और राहत कार्यों द्वारा जन-साधारण की सहायता करना !रामकृष्ण मिशन का आदर्श है -"कर्म-योग" ! भारत में स्वामीजी ने दो मठों की स्थापना की- एक कलकत्ता के पास बेलूर में, जो रामकृष्ण   मठ और मिशन  का "मुख्यालय" बना और दूसरा हिमालय में अल्मोड़ा के पास मायावती में , जिसे "अद्वैत आश्रम" कहा गया ! बाद में एक तीसरा मठ  मद्रास में स्थापित हुआ !दो अखबार भी शुरू किये गए - अंग्रेजी में "प्रबुद्ध भारत " और बांगला में "उदबोधन " !इसी वर्ष स्वामी अखंडानंद ने मुर्शिदाबाद जिले में अकाल राहत कार्य शुरू किया ! 
   जमशेदजी टाटा ने स्वामीजी से प्रभावित होकर "रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस" की स्थापना की ! उन्होंने पत्र लिखकर  स्वामीजी से इसका  प्रमुख बनने का अनुरोध किया लेकिन स्वामीजी ने यह कहकर असमर्थता जताई की यह उनके आध्यात्मिक रुचि के विरुद्ध है !
     बाद में वह आर्य समाजियों और सनातनवादियों  के बीच  मेल कराने के लिए  पश्चिमी पंजाब  गए, जहां आर्य समाजी हिंदुत्व की पुनः व्याख्या के पक्ष में थे वहीँ सनातनवादी  पारंपरिक या कट्टरपंथी हिंदुत्व  के पक्ष में थे और उसमें कोई बदलाव नहीं होने देना चाहते थे  !रावलपिंडी में उन्होंने आर्य समाज और मुस्लिमों के बीच वैर-भाव  को मिटाने के उपाय सुझाये !उनकी लाहौर यात्रा उनके  प्रसिद्ध भाषणों के कारण अविस्मरणीय बन गयी और उनकी भेंट गणित  के प्रतिभाशाली प्रोफ़ेसर राम तीर्र्थ गोस्वामी से हुई ,जो बाद मठ में शामिल हो गए और स्वामी राम तीर्थ बन गए !इन्होने भी भारत और अमेरिका में वेदान्त पर अनेक व्याख्यान दिए !  स्वामीजी दिल्ली और खेतरी सहित अन्य स्थानों पर भी गए और  जन.-1896 को वापस कलकत्ता पहुंचे ! यहाँ कुछ माह रहकर उन्होंने मठ के कार्यों को समेकित किया तथा शिष्यों को प्रशिक्षण दिया ! इसी समय उन्होंने अपनी प्रसिद्ध आरती " खंडन भव बंधन ... "  की रचना की !

पश्चिम की दूसरी यात्रा ->

   अपने गिरते स्वास्थ्य के बावजूद वह जून-1899  में एक बार फिर पश्चिम की  यात्रा पर गए !उनके साथ बहेन निवेदिता और स्वामी तुर्यानंद भी गए !इंग्लॅण्ड में कुछ समय बिताने के बाद वह अमेरिका पहुंचे और सन फ्रांसिस्को व न्यूयोर्क  में वेदान्त सभाओं की स्थापना की और कलिफोर्निया में शान्ति आश्रम की भी स्थापना की !बाद में उन्होंने सन 1900 में , पेरिस  में धर्म संसद में भाग लिया ! उनके  पेरिस में दिए व्याख्यान भी अविस्मरणीय रहे ! पेरिस से वह 9-दिस.-1900 को  बेलूर मठ वापस आ गए !

अंतिम वर्ष ->

      कुछ दिन मायावती के अद्वैत आश्रम  में बिताने के बाद वह अंतिम समय तक बेलूर मठ में ही रहे  !यहीं से वह रामकृष्ण मठ और मिशन को निर्देशित करते रहे और अमेरिका और इंग्लॅण्ड के कार्य को भी दिशा देते रहे !इस दोरान हजारों लोग उनसे मिलने आये जिनमें ग्वालिअर के महाराज और तिलक जैसे भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के अनेक निष्ठावान समर्थक भी थे ! दिसम्बर 1901 में उन्हें जापान में होने वाली धर्म संसद का निमंत्रण मिला किन्तु अपने खराब स्वास्थ्य के कारण वह उसमें भाग नहीं ले सके ! अपने अंतिम दिनों में उन्होंने बोधगया और वाराणसी की तीर्थयात्राएं की !
  उनकी लगातार यात्राओं , व्याख्यानों के कठोर कार्यक्रमों , व्यक्तिगत परिचर्चाओं  और पत्राचार ने उनके स्वास्थ्य पर  बहुत बुरा प्रभाव डाला और वह अस्थमा , डायबिटीज व अन्य शारीरिक बीमारियों से ग्रसित हो गए !अपनी म्रत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्हें तल्लीनता के साथ पंचांग पढ़ते हुए देखा गया और म्रत्यु से तीन दिन पूर्व उन्होंने अपनी चिता का स्थान भी निर्धारित कर दिया था ! उन्हें अपनी म्रत्यु का पूर्वाभास हो चुका था और उन्होंने अनेक लोगों से यह उल्लेख किया था की वह चालीस वर्ष की आयु  पूर्ण नहीं करेंगे,जो की सत्य हुआ !
  अपनी  म्रत्यु के दिन, 4-जुलाई-1902 को ,  उन्होंने बेलूर मठ में प्रात:-काल अपने कुछ शिष्यों को शुक्ल-यजुर्वेद की शिक्षा दी , स्वामी प्रेमानंद के साथ भ्रमण किया और उन्हें मठ के भविष्य से सम्बंधित दिशा-निर्देश दिए ! रात्री में ध्यानअवस्था के दोरान ही उन्होंने अपनी नश्वर  देह त्याग दी और मुक्त हो गए ,इसे उनके शिष्यों द्वारा महासमाधि कहा जाता है ! उनके शिष्यों के अनुसार  उनके नेत्रों और उनकी नाक व  मुख के आसपास  हल्का-सा रक्त लगा था ! डाक्टरों के अनुसार ऐसा मष्तिष्क की रक्त-वाहिनी के फटने के कारण हुआ होगा पर वह इसका ठीक-ठीक कारण नहीं बता पाए , वहीँ स्वामीजी  के शिष्यों का मानना है की महासमाधि की प्राप्ति  पर उनके मष्तिष्क में स्थित ब्रम्ह्रंध्र में छिद्र होने से ही ऐसा  हुआ !  इस प्रकार यह महान आत्मा पूरे विश्व में अपना प्रकाश फेलाकर  महासमाधि को प्राप्त हुई !

नोट->"महापुरुषों की जीवनियाँ केवल पढने के लिए नहीं बल्कि अपने जीवन में उतारने के लिए होती हैं ! महान आत्माएं अपना जीवन इसीलिए ही बलिदान करती हैं ताकि हम जैसे लोग उनसे प्रेरणा लें !" 

  

विश्व धर्म संसद में दिए गए भाषण के लिए ->